Book Title: Jine ki Kala
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 156
________________ कोई हमें कड़वे शब्द कह दे तो हम क्या करेंगे ? कह दीजिए हमें ज़रूरत नहीं है । जब आपके घर कोई साधु-संत आते हैं और आप उन्हें कोई चीज देते हैं और उन्हें आवश्यकता न हो तो वह कहते हैं 'खप' नहीं है। दुनिया की हर खपत को मिटाने का एक ही उपाय है, जब भी कोई ऐसी-वैसी बात हो आप तत्काल कहें 'मुझे यह बात खपती नहीं है।' इतना भर कहने से, आप अनुभव करेंगे कि आप कई दुविधाओं से बच गए। गांधीजी ने तीन बंदर दिए थे - बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो। आज एक बंदर मैं भी दे रहा हूँ। जिसकी एक अंगुली होगी सिर पर कि बुरा मत सोचो। गांधीजी के तीनों बंदर अपूर्ण हैं जब तक यह चौथा बंदर न होगा कि बुरा मत सोचो। अगर व्यक्ति की सोच ही बुरी है तो वह बुरा देखता है, बुरा बोलता है, बुरा सुनता है। इसलिए आदमी अपनी सोच को सुधारने की कोशिश करे । आपका जीवन आपके हाथों में है । आप किराए की ज़िंदगी नहीं लाए हैं और न ही किराए का जीवन जी रहे हैं । किराए के मकान की मरम्मत आप यह सोचकर नहीं करते कि एक दिन छोड़ना है, पर आपकी ज़िंदगी किराए की नहीं है । इसलिए देखें कि इसमें क्या-क्या चल रहा है। नीर-सा निर्मल मन जीवन की निर्मलता का दूसरा मंत्र है मन को निर्मल रखें। हम देख लें कि हमारे मन में क्या भरा है । नगरपालिका की कचरा पेटी में शायद उतनी गंदगी नहीं होगी जितनी गंदगी मनुष्य के मन-मस्तिष्क में भरी होती है । मनुष्य का निर्मल मन किसी मंदिर के समान होता है जहाँ व्यक्ति अपने आराध्य को स्थापित कर सकता है। मन की निर्मलता में ही व्यक्ति की शांति और जीवन की भक्ति है। जिसका मन निर्मल व शांत है, जिसके मन की दशा पवित्र है वही साधना के योग्य है। हम ध्यान-साधना करने के लिए मन को एकाग्र करने की कोशिश करते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि मन को एकाग्र करने से पूर्व मन को निर्मल करने की जरूरत है। अगर अपवित्र मन के साथ आपने साधना कर ली और उसका परिणाम भी प्राप्त हो गया, यह परिणाम एक दिन आपको रावण और कंस बनाकर छोड़ेगा। कोई देव प्रसन्न होकर आए और कहे कि मैं तुम्हें अमृत देता हूं, संयोग की बात तुमने प्याला आगे कर दिया और वह प्याला अगर पहले ही जहर से सना हुआ है तो उसमें डाला हुआ अमृत भी जहर हो जाएगा। पवित्र मन किसी तीर्थ की तरह है। निर्मल मन में ही प्रभु का बसेरा होता है। मन मंदिर है, इसमें जाल न जमने दें। मन के आईने में आप सत्संग में आ रहे हैं तो आपकी पहली शुरुआत हो निर्मल सोच से और दूसरे चरण में हो मन की निर्मलता । अपने मन पर विवेक का अंकुश लगाने की कोशिश करें। अपने मन को एकाग्र करने के बजाय पहले निर्मल करें। मन को ऐसा बना लें कि वह मंदिर बन जाए, तीर्थ बन जाए, परमात्मा को विराजित करने के लिए आसन बन जाए। प्राय: लोग कहते हैं कि पापी पेट का सवाल है, पर पाप पेट में नहीं, मन में होता है। पेट को दो रोटी चाहिए, जो चाहिए आदमी के मन को चाहिए। मन के दर्पण में वही दिखाई देता है जो आप होते हैं। मुझे याद है - एक आदिवासी किसान खेत में हल चला रहा था कि खेत में एक चमकीली चीज निकली। Jain Education International 155 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.

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