Book Title: Jine ki Kala
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 132
________________ बचें दख़लंदाजी से अपना दैनिक कार्यक्रम बनाएँ । घर में अधिक दखलअंदाज़ी न करें । जो जैसा कर रहा है उसे करने दें। घर में रहते हुए अधिक दखलंदाजी करेंगे तो दो नुकसान होंगे, एक तो परिवार के लोग आपसे टूटेंगे, आपकी बात नहीं सुनेंगे, दूसरा आप मानसिक रूप से अशांत रहेंगे। आपने अनुभव किया होगा कि जब आप घर की बहुओं को लेकर नुक्ताचीनी करते हैं या छोटी-छोटी बातों पर हस्तक्षेप करते हैं, तो परिवार वाले आपकी उपेक्षा करने लगते हैं। हां, अगर कोई बहुत बड़ी घटना हो जाए तो कम-से-कम शब्दों में हिदायत दें। अरे, आपका बेटा तीस साल का हो गया है, उसे उसकी समझ से भी कार्य करने दो। अगर आप बार-बार बोलेंगे तो परिवार के लोग मानसिक रूप से आपसे किनारा कर लेंगे। बहुएँ सोचेंगी ससुर जी दिन भर घर में बैठे रहते हैं, हम अपना मनचाहा कुछ भी नहीं कर सकते। तब आपका घर में रहना भारभूत बन सकता है। इसलिए व्यर्थ की झंझटबाजी मोल न लें, यह आपके मन को अशांत करेगी। आपकी संतान आपका कहना माने तो श्रेष्ठ और न माने तो चिंतित न हों क्योंकि अब कहने से भी मुक्ति मिली। सोचो क्या आपको अपने बच्चों के लिए ही सारी सिरपच्ची करनी है। मैंने अनुभव किया है कि पुत्र अगर किसी प्रकार के घाटे में चला जाए तो पुत्र तो निश्चिंत रहता है और पिता फिक्रमंद हो जाते हैं । ऐसे पिता हमारे पास आते हैं और कहते हैं गुरुवर, बेटे ने पच्चीस-पचास लाख का घाटा दे दिया है, कोई उपाय, कोई मंत्र बताएँ। मैं कहता हूं जिसने घाटा लगाया उसे कोई चिंता नहीं है, आप क्यों दुबले हुए जा रहे हैं ? अब भी अगर डूबने और खोने की सोचते रहोगे तो हर घड़ी अपने मन को पीड़ित और अशांत करते रहोगे। किस बात की चिंता करें? व्यर्थ की चिंताएँ न पालें। जवानी में चिंताओं का बोझ सहन किया जा सकता है, लेकिन बुढ़ापे में चिंताओं का बोझ व्यर्थ ही शरीर को तोड़ देता है। तुम्हारी चिंताएँ अगर कोई समाधान नहीं दे पा रही हैं तो व्यर्थ की चिंता करने की बजाए उसे समय पर छोड़ दें। ___मेरी तो यही सोच है कि अगर समाधान नहीं निकल पा रहा है, तो उसकी चिंता करने से अच्छा है उसे समय पर छोड़ दें। समय अपने आप उस कार्य को पूर्ण कर देगा। अब बेटा बिगडैल निकल गया, तुमने खूब समझाया पर वह अपनी बुरी आदतों को नहीं छोड़ पा रहा तो तुम उसके पीछे मत पड़ो। तुम अपनी सोचो। उसे तुम्हारी चिंता नहीं है, फिर तुम क्यों उसकी चिंता में नाहक कष्ट उठा रहे हो। मैंने तो यही पाया है कि बहू-बेटों को अपने माँ-बाप की उतनी चिंता नहीं होती, जितनी माँ-बाप को अपने बहू-बेटों की रहती है। वे ऐसी चिंताएँ लादे रहते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता लेकिन इस कारण अपना बुढ़ापा ज़रूर बिगाड़ लेते हैं। अधिक आशा से उपजे निराशा बुढ़ापे में अपने भाग्य का रोना न रोएँ। जो प्रकृति से मिल रहा है उसे प्रेम से स्वीकार करें। बच्चों से अधिक आशाएँ न रखें। लोग प्राय: कहते हैं कि बेटा तो बुढ़ापे का सहारा है, पर मैं कहता हूँ ज्यादा आशा न पालें। जीवनभर अगर आशाएँ रखी हैं तो बुढ़ापे में निराश होना पड़ सकता है। अगर आशा ही न रखोगे तो निराश भी नहीं होना पड़ेगा। देखते तो हो कि पड़ौसी का बेटा अपने पिता की सेवा नहीं कर रहा, तुम भी अपने पिता की 131 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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