Book Title: Jine ki Kala
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 41
________________ में जीना हमारी मानसिक ग्रंथियों को अवरुद्ध करता है। उससे हमारे ज्ञानतंतु कमजोर होते हैं। जीवन में संभव है कि किसी प्रकार का कोई एक दुःख आ जाए अथवा जिससे हम बहुत अधिक प्रेम कर रहे हों वही हमें दग़ा दे जाए। बजाए इसके हम निरन्तर उन्हीं विचारों में जीते रहें, कोशिश करें उन बातों और निमित्तों को भूलने की। दुःखदायी विचार हमारे दुःखों को कम नहीं करते अपितु उनमें और भी अधिक बढ़ोतरी किया करते हैं । चाह और चिंता : चोली-दामन का रिश्ता चिंता के कारणों में एक है 'हमारी अति-महत्वाकांक्षा ।' व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति करे वहाँ तक तो जीवन संयम के बाँध में बँधा रहता है लेकिन आकांक्षाओं के मकड़जाल में उलझ जाने के बाद उससे मुक्त पाना आदमी के लिए मुश्किल हो जाता है। सागर और आकाश का अंत हो सकता है, लेकिन मनुष्य की तृष्णा और आकांक्षा का कभी अंत नहीं हो सकता। और वे आकांक्षाएँ हमारे लिए चिंता का कारण बन जाती हैं। हम आकांक्षाएँ तो ढेर सारी बटोर लेते हैं लेकिन पूरी दो-चार भी नहीं कर पाते हैं। कुछ अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति होते हैं जो रात-दिन योजनाएँ बनाते हैं और हर जगह हाथ मारने की कोशिश करते हैं। वे करते कम हैं और सोचते ज्यादा हैं, परिणामस्वरूप वे चिंताओं से बोझिल होते रहते हैं । 'चाह गई, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह ।' चाह और चिंता में चोली-दामन का रिश्ता है। लगभग चालीस फीसदी चिंताओं का कारण हमारी महत्वाकांक्षा होती है, जो नहीं मिला है उसके लिए उधेड़बुन करने में है । व्यक्ति इसी में जीता रहता है और यही उधेड़बुन उसकी चिंता का मूल कारण बनती है। मैंने देखा है कि कुछ ऐसी प्रकृति के लोग होते हैं, जो जहाँ भी जाएँगे, जिस किसी देवी-देवता के मंदिर में भी तो उनकी संपूर्ण पूजा या उपासना में कोई-न-कोई चाह छिपी रहती है। जो मिला है, व्यक्ति उसका उपभोग नहीं कर पाता और जो नहीं मिला है उसके पीछे दौड़ता रहता है । आज अगर मंदिरों में भण्डार भर रहे हैं तो यह मत समझिएगा कि लोग भगवान को चढ़ा रहे हैं। वास्तव में वे लोग अपनी भविष्यनिधि की व्यवस्था कर रहे हैं। मनुष्य को धर्म के नाम पर यह समझाया गया है कि तुम्हें अगले जन्म में एक का सौ मिलेगा और सौ का लाख । हवा निकालें, हवाई कल्पनाओं की मनुष्य के मन में पलने वाली तृष्णा उसकी चिंता का मूल कारण है। तृष्णा हमारे संतोष को समाप्त करती है और असंतोष मानसिक तनाव का कारण बनता है। मुझे एक महानुभाव बताया करते थे कि उन्हें कई बार एक जैसा सपना आता है कि वे एक सोने के महल के सामने खड़े हैं। महल की खूबसूरत सीढ़ियों से चढ़कर वे महल की छत पर पहुँचते हैं। महल पर उनका राज्य है और वे महल की दीवारों पर टहल रहे हैं। लेकिन थोड़ी देर के बाद ही वे सपने में देखते हैं कि जिस दीवार पर वे खड़े हैं उसकी सारी ईंटें हिल रही हैं। उनका संतुलन बिगड़ने लगता है । वे दीवार से नीचे उतरने के लिए जैसे-तैसे सीढ़ियों के पास पहुँचते हैं लेकिन सीढ़ियों के पास पहुँच ही सीढ़ियाँ भी भरभराकर नीचे गिर जाती हैं। वे भयभीत हो जाते हैं और सोने का महल उन्हें जानलेवा लगता है और घबराकर वे जोर से चीखते हैं और उनकी आँख खुल जाती है। आँख खुलने पर भी इतनी तेज घबराहट रहती है कि सारी रात वे बैचेन रहते हैं और नींद नहीं ले पाते । Jain Education International 40 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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