Book Title: Jine ki Kala
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 79
________________ ढलने वाला है और जिनके पास विनम्रता है, उनका सौंदर्य अक्षुण्ण है। खुद को नहीं, औरों को सराहें मनुष्य अपने में तप-त्याग-ज्ञान-ध्यान का अहंकार भी पालकर रखता है। वह सोचता है - 'मुझसे बड़ा तपस्वी, जानकार और ज्ञानी कौन? जब व्यक्ति को बुद्धि का अहंकार हो जाता है तब वह बुद्धिहीन हो जाता है। तुम भी तो लोगों के मध्य अपनी तारीफ करते रहते हो कि तुमने इतनी तपस्या की, यह शास्त्र पढ़ा, इतना दान दिया, बहुत सी बातों की तुम्हें जानकारी है। तुम अपनी तारीफ जिन लोगों के बीच करते हो, हो सकता है कि वे इसे सुनना पसंद ही न करें। ऐसा भी हो सकता है कि तुम्हारे चले जाने के बाद वे लोग कहें- 'क्या बेकार की अपनी डींगें हांक रहा था, हमारा वक्त और खराब कर गया।' स्मरण रहे, कभी खुद की प्रशंसा न करें। हाँ, दूसरों की तारीफ करने में कभी कमी न रखें। सम्मान सदा औरों को देने के लिए होता है, इसे पाने का प्रयास मत कीजिये। प्रायः लोगों को सत्ता का भी अहंकार आ जाता है कि वे अमुक पद पर पहुँच गए हैं। मंत्री, केबीनेट सचिव, अध्यक्ष या ऐसे ही किसी ऊँचे पद पर सत्तासीन हो गए हैं। कृपया उन दिनों को याद कीजिए जब आप सत्ता में नहीं थे। भविष्य भी देख लें कि भतपर्व भी बनना है, फिर किस सत्ता का अहंकार कर रहे हैं? देखा करता हूँ लोगों को कि कल तक तो बड़े सामान्य थे लेकिन जैसे ही सत्ता मिली, मंत्री बने, लाल बत्ती की कार मिली कि उनके तेवर ही बदल जाते हैं। फिर उन लोगों से जब भी मेरा मिलना होता है जो आज भूतपूर्व हो गए हैं तो उनके सारे मिजाज ठंडे पड़ जाते हैं, सत्ता की अकड़ गायब हो जाती है । सत्ता तो दो दिन की है, यह तो आनी-जानी है। सत्ता में तुम किसी भी पद पर पहुँच जाओ, लेकिन अहंकार न करो। जब सत्ता अहंकार देने लगती है तो हमारे विनाश का कारण बन जाती है । जब-जब सत्तासीन लोगों ने स्वयं को प्रजा से बड़ा मान लिया है तब-तब प्रजा ने उन्हें सबक जरूर सिखाया है। किसकी सत्ता कब तक रही है! देनहार कोई और है हमारे यहाँ गुप्तदान की महिमा है ताकि दान देकर लोग अहंकार न कर सकें। पर अब तो पट्ट पर नाम चाहिए इसलिए दान दिया जाता है। दान देकर भी नाम की जबर्दस्त आकांक्षा है। दान देते हैं पचास हजार का और सम्मान पाने की इच्छा है पांच लाख की। मैं उन्हें प्रणाम करूँगा जो देते तो हैं लेकिन वापस पाने की आकांक्षा नहीं रखते। उन्हें भी प्रणाम है जो देते तो हैं पर पत्थर पर नाम लिखाने की चाह नहीं करते। जो समर्पण तो करते हैं लेकिन माला पहनने की कोशिश नहीं करते। याद है न- 'देनहार कोई और है, जो देवत है दिन रैन। लोग भरम हम पर करे, तासें नीचे नैन।' बात उस समय की है जब गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को उनकी अमर कृति 'गीतांजलि' के लिये नोबेल पुरस्कार मिला था। इस खबर से पूरे देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। देश-विदेश से उन्हें बधाई-संदेश आने लगे। छोटे-बड़े, नामी, गिरामी सभी लोग उन्हें बधाई देने के लिए उनके घर आने लगे। दूर-दूर से लोग आ रहे थे, लेकिन एक व्यक्ति जो उनका पड़ोसी ही था, बधाई देना तो दूर, यह सब देख कर बेचैन हो रहा था। उसे 78 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186