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मैंने कहा कि जिस महल की एक ईंट भी हमने नहीं लगाई उसके ऊपर भला हम चढ़ें ही क्यों ? जीवन में अगर महल पर चढ़ना है तो पहले परिश्रम करो, एक-एक ईंट का संयोजन कर मजबूती से महल बनाओ फिर अगर महल पर चढ़ोगे, तो न तो ईंटे हिलेंगी और न ही सीढ़ियाँ गिरेंगी। बाकी तो जीवन में सब लोग हवाई किले बनाते हैं किन्तु कल्पना के हवाई किलों की उम्र आखिर कितनी होती है ? तृष्णा का मकड़जाल व्यक्ति खुद बुनता है और उसमें उलझ कर छटपटाता हुआ अनेक रोगों से घिर जाता है। बिना परिश्रम के केवल कल्पना के हवाई किलों का निर्माण करना हमारी तृष्णा का ही विकृत रूप है। अनन्त हैं तृष्णा के तीर
तृष्णा का सबसे खतरनाक रूप है अपनी आवश्यकता से अधिक सुख-साधन और उपलब्धियों को पा लेने के बावजूद भी और अधिक धन, सम्पत्ति, यश, वैभव आदि को पाने की आकांक्षा। अर्थात् दूसरों की खुशियों की कब्र पर अपनी कामयाबी के झण्डे गाड़ देने की तृष्णा। तृष्णा का यह रूप या तो व्यक्ति को चिंताग्रस्त करके अधमरा कर देता है या फिर व्यक्ति को निरंकुश तानाशाह बना कर विकृत कार्य करने के लिए प्रोत्साहित कर देता है। सद्दाम हुसैन और उनके बेटे इसके सबसे ताजा नमूने हैं। हिटलर, नादिरशाह, सिकंदर, महमूद गजनवी, चंगेज खां जैसे पता नहीं कितने तानाशाह और स्वेच्छाचारी लोग हुए, जिन्होंने अपनी तृष्णा को शांत करने के लिए कितने ही बेगुनाह लोगों के खून से होली खेली और इतिहास के पन्नों को खून में डूबो दिया।
तृष्णा के ये दोनों ही रूप खतरनाक हैं। पहली विकृति चिंता, तनाव, घुटन जहाँ स्वयं आदमी को नष्ट करती है वहीं दूसरी विकृति हिंसा, आतंक भी हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय ढाँचे को कमजोर करते है। ऐसे लोगों का अंत भी बड़ा दुःखद होता है । मुसोलिनी और उसकी पत्नी को लोगों ने मार कर चौराहे पर लटका दिया था। हिटलर ने विक्षिप्त होकर आत्महत्या कर ली थी। सिकंदर वापस अपनी धरती पर भी न पहुँच पाया था।
दूसरी ओर माया की आपा-धापी में व्यक्ति इतना ज्यादा उलझ गया है कि स्वयं ही नष्ट हुआ जा रहा है। उसके पास आलीशान कोठी व बंगला है लेकिन घर की सौहार्दमयी संवेदना मर चुकी है। घूमने के लिए एक से बढ़कर एक लक्जरी कारें हैं लेकिन भागम-भाग ने मन की शांति छीन ली है। उसके पास अथाह सम्पत्ति है लेकिन वहाँ प्रेम नहीं अपितु अहंकार का प्रदर्शन है। जीवन में शांति के बजाय तृष्णा है, कुण्ठा है, तनाव, अवसाद और घुटन है।
___मैं एक महानुभाव को जानता हूँ जिन्हें जमीन और सम्पत्ति की इतनी तृष्णा थी कि पूरे शहर की हर जमीन को वे अपनी ही सम्पत्ति मानते थे। जमीनों को पाने के लिए वे खोटे-खरे हर तरह के काम कर देते थे। 'धन आए मुट्ठी में, धर्म जाए भट्ठी में' वाली सोच के व्यक्ति थे। साम, दाम, दण्ड, भेद हर तरह की नीति-अनीति वे कर दिया करते थे। अरबों रुपये की जमीनें उन्होंने बटोर ली लेकिन खुद अकाल मौत मारे गए। उनके दो लड़के हैं, दोनों के दो-दो लड़कियाँ हैं। बड़े लड़के की दोनों लड़कियाँ मानसिक रूप से विक्षिप्त हैं और छोटे लड़के की दोनों लड़कियाँ किसी दुर्घटना में अपंग हो चुकी हैं। वे दोनों लड़के काफी सुरक्षा में जीते हैं और शायद सोचा करते हैं कि अगर उनके पास धन नहीं होता तो आज वे अपनी लड़कियों का इलाज कैसे करवाते?
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