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जैनपदसंग्रहमनः ॥ १॥ फरस विषयके कारन वारन, गरतैपरत दुख पावै है । रसना इंद्रीवश झेप जलमें, कंटक कंठ छिदावै है । हे मन० ॥२॥ गंध. लोल पंकज मुंद्रितमें अलि निजपान खपावै है। नयनविषयवश दीपशिखामें अंग पतंग जरावे है। हे मन० ॥ ३॥ करनविषयवश हिरन अरनमें, खलकर प्रान लुनावै है । दौलत तज इनको जिनको भज, यह गुरु शीख सुनावै है। हे० ॥ ४॥
४७४ .. हो तुम शठ अविचारी जियरा, जिनवृष पा. य वृथा खोवत हो। हो तुम०॥ टेक ॥ पी अ. नादि मदमोह स्वगुननिधि, भूल अचेत नींदसो. वत हो । हो तुम०॥१॥ स्वहितसीखवच सुगुरु पुकारत, क्यों न खोल उरहग जोवत हो । ज्ञानविसार विषयविष चाखत, सुरतरंजारि कनक .१ हाथी। २ गढेमें पड़कर। ३ मछली। ४ वंदकमलोंमें । ५ कानके विषयसे । ६ वनमें । ७ जिनधर्म । ८ हियेकी आंखें। ९ कल्पवृक्षको जलाकर। १० धत्तूरा ।