Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 238
________________ (४५) ॥ टेक ॥ लोकालोक निहारक स्वामी, दीठे नैन हमारियां ॥ हो जी० ॥१॥ पट चालीसौं गुनके धारक, दोष अठा-- रह टालियां । वुधजन शरनँ आयौ थांके, थे शरणागत पालियां ।। हो जी० ॥२॥ (१११) राग-परज। - म्हे तो उभा राज थां. अरज करांछां, मानौं महाराज ॥ म्हे० ॥ टेक ॥ केवलज्ञानी त्रिभुवननामी, अंतरजामी सिरताज ॥ म्हे० ॥१॥ मोह शत्रु खोटौ संग लाग्यौ, वहुत करै छै अकाज । यात वेगि वचावौ म्हाने, थां. म्हाकी लाज ।। म्हे०॥२॥ चोर चडाल अनेक उवारे, गीध श्याल मृगराज । तौ वुधजन किंकरके हितमैं, ढील कहा जिनराज || म्हे ० ॥३॥ (११२) राग-कालिंगड़ो। कुमतीको कारज कूड़ौ, हो जी ॥ कुमती० ॥ टेक॥ थांकी नारि सयानी सुमती, मतो कहै छै रूडौ जी ॥ कुमती० ॥१॥ अनन्तानुबंधीकी जाई, क्रोध लोभ मद भाई। माया वहिन पिता मिथ्यामत, या कुल कुमती पाई जी । कुमती० ॥२॥ घरको ज्ञान धन वादि लुटावै, राग दोष उपजावै । तव निर्वल लखि पकरि करम रिपु, गति गति नाच नचावै ।। कुमती० ॥३॥ या परिकरसौं ममत निवारी, वुधजन सीख सम्हारौ । धरमसुता सुमती. सँग राचौ, मुक्ति महलमैं पधारौ।। कुमती० ॥४॥

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