Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(४४) छोडि चले जम आये ॥ अव०॥२॥ भूखाकै खाने लागै, धाया पट भूषण पागै । सत भये सहस. लखि मांगे, या तिसना नाही भागै ॥ अव० ॥३॥ ये अथिर सौज परिवारो, थिर चेतन क्यों न सम्हारौ । वुधजन ममता सव. टारो, सव आपा आप सुधारौ ॥ अव०॥४॥
(१०८) राग कालिंगड़ो परज धीमो तेतालो। । म्हे तो थांका चरणां लागां, आन भावकी परणति त्यागां ।। म्हे० ॥ टेक ॥ और देव सेया दुख पाया, थे पाया छौ अव बड़भागां ॥ म्हे० ॥१॥ एक अरज म्हांकी सुण जगपति, मोह नींदसौं अवकै जागां । निज सुभाव थिरता बुधि दीजे, और कछू म्हे नाहीं मांगां ।। म्हे. ॥२॥
(१०९)
राग-कालिंगड़ो। आज मनरी बनी छै जिनराज ॥ आज० ॥ टेक ॥ थांको ही सुमरन थांको ही पूजन, थांको ही तत्त्वविचार ॥ आज० ॥१॥ थांके विछुरै अति दुख पायौ, मोपै कह्यौ न जाय । अव सनमुख तुम नयनों निरखे, धन्य मनुष परजाय ॥ आज० ॥२॥ आज हि पातक नास्यौ मेरी, ऊतरस्यौं भव पार । यह प्रतीत वुधजन उर आई, लेस्यौं शिवसुख सार ॥ आज० ॥३॥
(११०) . . होजी म्हे निशिदिन ध्यावां, ले ले बलहारियां ॥ हो जी०

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