Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 245
________________ (५४) सूखी सरिता नीर वहत है, वैर तज्यों मृग सूर वे। चालत मंद सुगंध पवन वन, फूल रहे सव फूल वे ॥ देखे० ॥२॥ तनकी तनक खबर नहिं तिनकों, जर जावो जैसे तूल वे। रंक रावतें रंच न ममता, मानत कनकको धूल वे।।देखे. ॥३॥भेद करत हैं चेतन जड़को, मैंटत हैं भवि-भूल वे। उपगारक लखि बुधजनं उरमैं, धारत हुकम कवूल वे ॥ देखे०॥४॥ राग-मल्हार । जगतपति तुम ही श्रीजिनराई॥जगत० ॥ टेक ॥ और सकल परिग्रहके धारक, तुम त्यागी हो सांई ॥ जगत० ॥१॥ गर्भमास पदरै लौं धनपति, रनवृष्टि वरसाई। जनम समय गिरिराज शिखरपर, न्हौंन कस्यौ सुरराई । जगत० ॥२॥ सदन त्यागि वनमैं कच लाँचत, इंद्रन पूजा रचाई। सुकलध्यानतें केवल उपज्यो, लोकालोक दिखाई ॥ जगत ॥३॥ सर्व कर्म हरि प्रगटी शुद्धता, नित्य निरंजनताई । मनवचतन वुधजन बंदत है, द्यो समता सुखदाई ॥ जगत० ॥४॥ (१३१) अहो ! अव विलम न कीजे हो। भवि कारज कर लीजे हो ॥ अहो० ॥ टेक ॥ चौरासी लख जौनिवीचमैं, नरभव कव लीजे॥ अहो० ॥१॥ श्रवन अंजुली धारि जिनेश्वर,-वचनामृत पीजे । निज स्वभावमैं राचि पराई, परनति तजि दीजे ॥ अहो० ॥२॥ तनक विषयहित

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