Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 246
________________ (५५) काल अनन्ता, भव भव क्यों छीजे । बुधजन जिनपद सेय सयानें, अजर अमर जीजे ॥ ३॥ (१३२) राग-गौड़ मल्हार । ' सुरनरमुनिजनमोहनको मोहि, दर्शन देखन दै री ॥ भव भरमनतें दुखी फिरत हूं, अव जिन चरनन रहने दै। सुर० ॥१॥ सूर स्थाल कपि सिंह न्यौलकी, विपति हरी इन सरनों दै । वलिहारी वुधजन या दिनकी, बड़े भाग पद परसन दै ॥ सुर० ॥२॥ (१३३) राग-रेखता। अरज जिनराज यह मेरी, इसा औसर वतावोगे.॥ अरज० ॥ टेक ॥ हरो इन दुष्ट करमनको, मुकतिका पद दिलावोगे । अरज०॥१॥ करूं जब भेप मुनिवरका, अवर विकलप विसारूंगा। रहूंगा आप आपेमें, परिग्रहको विडारूंगा ।।अरज० ॥२॥ फिऱ्या संसार सारेमें, दुखी में सब लख्या दुखिया । सुनत जिनवानि गुरुमुखिया, लख्या चेतन परम सुखिया ॥ अरज० ॥ ३ ॥ पराया आपना जाना, बनाया कोज मन माना । गहाया कुगति तैखाना, लहाया विपति विललाना ॥ अरज० ॥४॥ जगतमें जनम अर मरना, डरा मैं आ लिया शरना । मिहर बुधजनपै या करना, हरो परतें ममत धरना ॥ अरज० ॥५॥

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