Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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( ६४ )
है, क्योंकरि सो वरन वैननमें ॥ अदभुत० ॥ १ ॥ भरम नस्यौ भास्यौ तत्त्वारथ, ज्यौं निकस्यौ रवि वादर - घन मैं ॥ अदभुत० ॥ २ ॥ ऋद्धि अनादी भूली पाई, वुधजन राजे अति चैनन | अदभुत० ॥ ३ ॥
( १५३ )
राग - जंगलो |
ओर तो निहारौ दुखिया अति घणौ हो सांइयां ॥ ओर० ॥ टेक ॥ गति च्यारन धारिवो सांइयां, जनम मरनको कष्ट अपार; म्हारा साइयां ॥ ओर० ॥ १ ॥ तारण विरद तिहारौ सांइयां, मोहि उतारोगे पार । बुधजन दास तिहारौ सांइयां, कीजे यौ उपगार; म्हारा सांइयां ॥ ओर ॥ २ ॥ ( १५४ )
तूही तूही याद आवै जगतमैं || तूही ० ॥ टेक ॥ तेरे पद पंकज सेवत हैं, इंद नरिंद फनिंद भगतमैं | तूही ० ॥ १ ॥ मेरा मन निशिदिन ही राच्या, तेरे गुन रस गान 'पगतमैं | तूही ० ॥ २ ॥ भव अनन्तका पातक नास्या, तुम जिनवर छवि दरस लगतमैं || तूही ० ॥ ३ ॥ मात तात परिकर सुत दारा, ये दुखदाई देख भगत मैं ॥ तूही ० ॥ ४ ॥ बुधजनके उर आनंद आया, अब तौ हूं नहिं जाऊं कुगतिमैं | तूही ० ॥ ५ ॥
( १५५) राग - दीपचंदी |
म्हारा मनकै लग गई मोहकी गांठ, मैं तौ जिनआगमसौ खोलौं || म्हारा ॥ टेक ॥ अनादि कालकी घुलि

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