Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
View full book text
________________
( ६५ )
रही गाठी, ज्ञान छुरीसों छोली || म्हारा० ॥ १ ॥ अष्ट करम ज्ञानावरनादिक, मो आतम ढिग जौलौं । राग दोष विकरुप नहिं त्यागौं, तोलौं भव वन डोलीं ॥ म्हारा० ॥२॥ भेद विज्ञानकी दृष्टि भई तव, परपद नाहिं टटोलों । विषय कपाय वचन हिंसाका, मुखतें कबहुँ न बोलौं | म्हारा● ॥ ३ ॥ धन्य जथारथवचन जिनेसुर, महिमा चरनौं कॉल | बुधजन जिनगुनकुसुम ग्रंथिंक, विधिकर कंउमैं पोलों || म्हारा० ॥ ४ ॥
( १५६) राग-संमाच झंौदी ।
पूजन जिन चाली री मिल साथनि ॥ पूजन० ॥ टेक ॥ आज देहाड़ी है भलाँ, आया जिन आंगनि ॥ पूजन० ॥ १ ॥ आठौं व्य चहोड़िकें, कीये गुन भापनि । अपना कलम खोय हैं, करि हैं प्रतिपालनि ॥ पूजन० ॥ २ ॥ चित चंचलता मेटिक, लागी प्रभु पाँयनि । सब.. fafe मनवांछा मिले, फिरि होहि न चायनि ॥ पूजन० ॥ ३ ॥
( १५७ ) रंगा-रेखता ।
तिहारी याद होते ही, मुझे अम्रत वरसता हैं । जिगर तपता मेरा भ्रमसों, तिस समता सरसता है । तिहारी ० ॥ १ ॥ दुनीके देव दाने सब, कदम तेरे परसता हैं । तिहारे दरस देखनको, हजारों चंद तरसता है ॥ तिहारी०
१ दिन । ९ हृदय

Page Navigation
1 ... 248 249 250 251 252 253