Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 253
________________ (68) 'शिवदाई / / आज० // 2 // बड़े भाग बुधजनके आये, सहजै सव निधि पाई। सव पुरके घर घरमैं मंगल, वाजे वजत सवाई // आज० // 3 // (163) ___राग-अलहिया बिलावल / . कृपा तिहारी विन-जिन सइयाँ, कैसे उधरैगो विपयसुख लइयां // कृपा० // टेक // जो कछु भोजन हरत समयछिन, तन यह विलखि वनै मुरझैया // कृपा० ॥१॥पह-. लैं याकी वान सुधारौ, दिखलावौ तत्त्वार्थ गुसइयां / तब ये जानै उर सरधानै, तजै कुबुद्धि सुबुद्धि गहइयां // कृपा० // 2 // वहुत पातकी भवदधि तारे, पतितउधारक सांचे सइयां / वुधजन दास पस्यौ भवदधिमैं, वेगि तारिये गहकर वहियां / / कृपा० // 3 // (164) राग-अडाणूं। . चेतन मो-मातौ भव वनमैं, गति गति भरमत डोले // चेतन० // टेक // अनत ज्ञान दरसन सुख वीरज, ढापि दिये रंग होलै // चेतन० // 1 // अलप भोगमैं मगन होय है, हित अनहित नहिं तोलै / मनमैं और करत तन ओरै, और हि मुखतें बोले // चेतन० // 2 // गुरु उपदेश धार ले भाई, तजि विकलप झकझोलै / है वैरागी निज लौं लागी, सो वुधजन शिवको लै // चेतन० // 3 // . राग-सोरठ। . : उमाहौ म्हानै लागि गयौ छै, मुक्ति मिलनरो // उमा

Loading...

Page Navigation
1 ... 251 252 253