Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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( ५३ )
जवाब तुझे क्या गरूर है । ये वक्त चला जाता, इसकी जरूर है | मद० ॥ १ ॥ जैर जिंदगी जवानी, जाहिर जहानमें | सब सपनेकी दौलत, रहती न ध्यानमें ॥ मर० ॥ २ ॥ झूठे मजेकेमाहीं, सब सम्पदा दई । तेरे ओकूप ( १ ) सेती, तू आपदा लई ॥ मद० || ३ || साहिब है - सभीका ये, इसक क्या लिया । करता है स्वाल सबपै, वेशर्म हो गया | मद० ॥ ४ ॥ निज हालका कमाल है, सम्हाल तो करो । सब साहिवी हैं इसमें, वुधजन निगह धरो ॥ मद० ॥ ५ ॥
( १२८ )
राग - मल्हार ।
हो राज म्हें तो वारी जी, थानें देखि ऋषभ जिन जी, अरज करूं चित लाय ॥ हो० ॥ टेक ॥ परिग्रहरहित सहित रिधि नाना, समोसरन समुदाय । दुष्ट कर्म किम जीतियाँ जी, धर्म क्षमा उर ध्याय ॥ हो० ॥ १ ॥ निंदनीके दुख भोग, बंदक सब सुख पाय । या अदभुत वैरागता जी, मोतैं वरनी न जाय || हो० ॥ २॥ आन देवकी मानतें, पाईं बहु परजाय । अव बुधजन शरनौ गद्यौ जी, आवागमन मिटाय || हो० ॥ ३ ॥
( १२९ )
राग - मल्हार ।
देखे मुनिराज आज जीवनमूल वे ॥ देखे ० टेक ॥ सीस लगावत सुरपति जिनकी, चरन कमलकी धूल वे ॥ दे० ॥१॥
१ घमंड | २ धन ।

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