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जैनपदसंग्रह। पूरव, भेद-ज्ञान न चितारा रे। कहा भयो सुर्वटाकी नाई, रामरूप न निहारा रे ॥ भाई० ॥३॥ भवि उपदेश मुकत पहुँचाये, आप रहे संसारा रे । ज्यों मांह पर पार उतारै, आप वारका वारा रे ॥ भाई० ॥४॥ जिनके वचन ज्ञान परगासैं, हिरदै मोह अपारा रे। ज्यों मशालची और दिखावै, आप जात अँधियारा रे ॥ भाई० ॥ ५॥ वात सुनें पातक मन नासै, अपना मैल न झारा रे। वांदी परपद मलि मलि धोवै, अपनी सुधि न सँभारा रे ॥ भाई० ॥६॥ ताको कहा . इलाज कीजिये, बूड़ा अम्बुधि धारा रे । जाप जप्यो वहु ताप तप्यो पर, कारज एक न सारा रे ॥ भाई. ॥ ७ ॥ तेरे घटअन्तर चिनमूरति, चेतनपदउजियारा रे। ताहि लखै तासौं वनि आवै, धानत लहि भव पारा रे ॥ भाई० ॥८॥
१५९ । राग-सोरठ। भजो आतमदेव, रेजिय ! भजो आतमदेव ॥रे जिय० ॥ टेक ॥ लहो शिवपद एव ॥ रे जिय० ॥ ॥१॥ असंख्यात प्रदेश जाके, ज्ञान दरस अनन्त । सुख अनन्त अनन्त वीरज, शुद्ध सिद्ध महन्त ॥रे जिय० ॥२॥ अमल अचलातुल अनाकुल, अमन अवच अदेह । अजर अमर अखय अभय प्रभु, रहित१ तोतेके समान । २ मल्लाह । ३ दासी ।