Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 181
________________ १०८ जैनपदसंग्रह। खय भयो, अव्रत विषय दुखकार हो । द्यानत कव यह थिति पूरी है, लहों मुकतपद सार हो ॥ कौन० ॥२॥ २०२। रे! मन गाय लै, मन गाय लै, श्रीजिनराय ॥रे मन० ॥ टेक ॥ भवदुख चूरै आनंद पूरै, मंगलके समुदाय ॥ रे मन० ॥ १ ॥ सवके स्वामी अन्तरजामी, सेवत सुरपति पाय । कर ले पूजा और न दूजा, धानत मन-वच-काय ॥ रे मन० ॥२॥ २०३। राग-प्रभाती। देखे जिनराज आज, राजऋद्धि पाई ॥ देखे० ॥ टेक ॥ पहुपवृष्टि महा इष्ट, देवदुंदुभी सुमिष्ट, शोक करै भृष्ट सो, अशोकतरु वड़ाई ॥ देखे० ॥१॥ सिंहासन झलमलात, तीन छत्र चित सुहात, चमर फरहरात मनो, भगति अति बढ़ाई ॥ देखे० ॥२॥ द्यानत भामण्डलमें, दीसैं परजाय सात, बानी तिहुँकाल झरै,. सुरशिवसुखदाई ॥ देखे ॥३॥ . २०४।। साधजीने वानी तनिक सुनाई ॥साधजी०॥ टेक॥ गौतम आदि महा मिथ्याती, सरधा निहचै आई॥ साधजी० ॥१॥ नृप विभूति छयवान विचारी, वारह भावन भाई ॥ साधजी० ॥२॥ द्यानत हीन शकति हू देखौ, श्रावक पदवी.पाई॥ साधजी०॥३॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253