Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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चतुर्थभाग। १४९० लेश ॥ प्राणी० ॥४॥ घन करमनि आच्छादियो, ज्ञानभानपरकाश । है ज्योंका यों शाखता, रंचक; होय न नाश ॥ प्राणी० ॥ ५॥ लाली झलकै फटिकमें फटिक न लाली होय । परसंगति परभाव है, शुद्धखरूप न कोय ॥ प्राणी० ॥६॥ त्रस थावर नर नारकी, देव आदि बहु भेद । निहचै एक खरूप हैं, ज्यों पट सहज सुपेद ॥ प्राणी० ॥ ७ ॥ गुण ज्ञानादि अनन्त हैं, परजय सकति अनन्त । द्यानत अनुभव कीजिये, याको यह सिद्धन्त ॥ प्राणी ॥८॥
३१८ । राग-बिलावल | · · ". सबमें हम हममें सव ज्ञान, लखि वैठे दृढ़ आसन तान ॥ सर्वमें० ॥ टेक ॥ भूमिमाहिं हम हममें भूमि, क्यों करि खोर्दै धामाधूम ॥ सबमें ॥ १ ॥ नीर-: माहिं हम हममें नीर, क्यों करि पीवें एक शरीर ॥ सवम० ॥२॥ आगमाहिं हम हममें आगि; क्यों करि जालै हिंसा लागि ॥ सवमें० ॥ ३॥ पौन माहि हम हममें पौन, पंखा लेय विराधै कौन ॥ सवमें ॥४॥ रूखमाहिं हम हममें रूख, क्योंकरि तोड़ें लागें भूख ॥ सबमें० ॥५॥ लट चैंटी माखी हमः एक, कौन सतावै धारि विवेकः ॥ सवमें० ॥६॥ खग मृग मीन सवै हम जात, सबमें चेतन एक विख्यात । सबमें० ॥ ७॥ सुर नर नारक हैं हम रूप,

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