Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(२३)
__ राग-कनड़ी। भला होगा तरो यौँ ही, जिनगुन पल न भुलाय हो । भला० ॥ टेक ॥ दुख मैटन सुखदैन सदा ही, नमिकै मन 'वच काय हो । भला० ॥१॥ शक्री चक्री इन्द्र फनिन्द्र सु, वरनन करत थकाय हो। केवलज्ञानी त्रिभुवनस्वामी, ताको निशिदिन ध्याय हो ॥ भला०॥२॥ आवागमनसुरहित निरंजन, परमातम जिनराय हो । वुधजन विधितें पूजि चरन जिन, भव भवमै सुखदाय हो ।भला०॥३॥
राग-कनड़ी। .. उत्तम नरभव पायकै, मति भूलै रे रामा ॥ मति भू०॥ टेक ॥ कीट पशूका तन जव पाया, तव तू रह्या निकामा। अव नरदेही पाय सयाने, क्यों न भजै प्रभुनामा ॥ मति भू०॥१॥ सुरपति याकी चाह करत उर, कव पाऊं नरजामा । ऐसा रतन पायकै भाई, क्यों खोक्त विन कामा ॥ मति भू० ॥२॥ धन जोवन तन सुन्दर पाया, मगन भया लखि भामा । काल अचानक झटक खायगा, परे रहेंगे ठामा ॥ मति० ॥ ३ ॥ अपने स्वामीके पदपंकज, करो हिये विसरामा। मैंटि कपट भ्रम अपना वुधजन, ज्यों पावो शिवधामा ॥ मति भू०॥४॥.
(५६) धनि चन्दप्रभदेव, ऐसी सुबुधि उपाई॥ धनिकाटेक।। जगमैं कठिन विराग दशा है, सो दरपन लखि तुरत

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