Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 228
________________ ' (३५) • दाख चाखिकै, आन निमोरी क्यों मुख आनै । अव तौ सरनँ राखि रावरी, कर्म दुष्ट दुख दे छै म्हांनै ॥ छिन० ॥२॥ वम्यौ मिथ्यामत अम्रत चाख्यौ, तुम भाल्यौ धास्यौ मुझ कानै । निशि दिन थांकौ दर्श मिलौ मुझ, बुधजन ऐसी अरज वखानै । छिन० ॥३॥ (८७) वन्यौ म्हारै या घरीमैं रंग ॥ बन्यौ० ॥ टेक ॥ तत्त्वारथकी चरचा पाई, साधरमीको संग ॥ वन्यौ० ॥१॥ श्रीजिनचरन वसे उरमाहीं, हरप भयो सब अंग । ऐसी विधि भव भवमै मिलिज्यौ,,धर्मप्रसाद अभंगावन्यौ० ॥२॥ (८८) राग-सोरठ। कीपर करौ जी गुमान, थे तो कै दिनका मिजमान ॥ कींपर० ॥ टेक ॥ आये कहांतें कहां जावोगे, ये उर राखौ ज्ञान ॥ कींपर० ॥१॥ नारायण बलभद्र चक्रवति, नाना रिद्धिनिधान । अपनी अपनी वारी भुगतिर, पहुँचे परभव थान ॥ कींपर० ॥२॥ झूठ वोलि मायाचारीतें, मति पीड़ो परमान । तन धन दे अपने वश वुधजन, 'करि उपगार जहान ॥ कींपर० ॥३॥ . ____ राग-सोरठ, एकतालो। चंदाप्रभु. देव देख्या दुख भाग्यौ ॥ चंदा० ॥ टेक ।। धन्य देहाड़ो मन्दिर आयौ,भाग अपूरव जाग्यौ ।। चंदा० . नीमकी फली-निम्बोरी । २ किमपर । ३ दिन ।

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