Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 234
________________ ॥ टेक ॥ ठौर ठौर सारे जग भटक्यौ, ऐसो मिल्यो नहिं कोय । चंचल चित मुझि अचल भयौ है, निरखत चरनन तोय ॥ म्हारो० ॥१॥ हरप भयौ सोउर ही जानें, वरनौं जात न सोय । अनतकालके कर्म नसँगे, सरधा आई जोय ॥ म्हारी० ॥२॥निरखत ही मिथ्यात मिट्यौ सव, ज्यों रवितै दिन होय । वुधजन उरमैं राजौ नित प्रति, चरनकमल तुम दोय ।। म्हारो० ॥३॥ (१०२) राग-सोरठ। आनंद हरप अपार, तुम भैटत उरमैं भया ॥ आनंद. ॥ टेक ॥ नास्या तिमिर मिथ्यात, समकित सूरज ऊगिया। आनंद० ॥१॥ मिटि गयौ भव आताप, समता रससौं सींचिया । जान्या जगत असार, निज नरभवपद लखि लिया ॥ आनंद० ॥२॥ परमौदारिक काय, शुद्धातम पद तुम धरे । दोप अठारैनाहिं, अनत चतुष्टय गुन भरे।। ॥ आनँद० ॥३॥ उपजी तीर्थविभूति, कर्म घातिया सब हरे। तत्त्वारथ उपदेश, देव धर्म सनमुख करे ॥आनँद० ॥४॥ शोभा कहिय न जाय, सिंहासन गिर मेरसौं । कलपवृक्षके फूल, वरपत हैं चहुंओरसौं॥ आनँद ॥५॥ चाजत दुंदभि जोर, सुनि हरपत भवि घोरसौं । भामडल भव देखि, छूटत हैं भवि सोरसौं ॥ आनँद० ॥ ६ ॥ तीन छत्र निशि चंद, तीन लोक सेवा करें। चौंसठ चमर सफेद, गंधोदकसे सिर ढरै ॥ आनँद० ॥ ७ ॥ वृक्ष

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