Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 226
________________ (२७) · सम्यग्ज्ञान विना, तेरो जनम अकारथ जाय ॥ सम्यग्ज्ञान०॥ टेक ॥ अपने सुखमैं मगन रहत नहिं, परकी लेत वलाय । सीख सुगुरुकी एक न माने, भव भवमैं दुख पाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥१॥ ज्यौं कपि आप काठलीलाकरि, प्रान तजै विललाय। ज्यौं निज मुखकरि जालमकरिया, आप मरे उलझाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥२॥ कठिन कमायो सब धन ज्वारी, छिनमैं देत गमाय । जैसैं रतन पायके भोंदू, विलखे आप गमाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥३॥ देव शास्त्र गुरुको निहङकरि, मिथ्यामत मति ध्याय । सुरपति वांछा राखतयाकी, ऐसी नर परजाय ॥ सम्यग्ज्ञान राग-झंझोटी। शिवथानी निशानी जिनवानि हो ॥ शिव०॥टेक॥ भववनभ्रमन निवारन-कारन, आपा-पर-पहचानि हो ॥ शिव०॥१॥ कुमति पिशाच मिटावन लायक, स्याद मंत्र मुख आनि हो । शिव० ॥२॥ बुधजन मनवचतनकरि निशिदिन, सेवो सुखकी खानि हो । शिव० ॥३॥ देखो नया, आज उछाव भया । देखो० ॥टेक ॥ चंदपुरी, महासेन घर, चंदकुमार जया ॥ देखो० ॥१॥ मातलखमनासुतको गजपै,..लै हरि गिरपै गया। देखो ॥२॥ आठ सहस कलसा सिर ढारे, वाजे वजत नया ॥ देखो० ॥३॥ सोपि दियो पुनि मात गोदमैं, तांडव

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