Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(३४ )
(.८४)
राग-सोरठ। भोगांरी लोभीड़ा, नरभव खोयौ रे अजान ॥ भोगांरा० ॥ टेक ॥ धर्मकाजको कारन थौ यो, सो भूल्यौ तू बान । हिंसा अँनृत परतिय चोरी, सेवत निजकरि जान ॥ भोगांरा० ॥१॥ इंद्रीसुखमैं मगन हुवा तू, परकों आतम मान । बंध नवीन पड़े छै यातें, होवत मौटी हान ॥ भोगांरा० ॥२॥ गयौ न कछु जो चेतौ वुधजन, पावौ अविचल थान । तन है जड़ तू दृष्टा ज्ञाता, कर लै यों सरधान ॥ भोगांरा० ॥३॥
(८५) म्हारी कौन सुन,थे तो सुनि ल्यो श्रीजिनराज॥ म्हारी० ॥ टेक ॥और सरव मतलवके गाहक, म्हारौ सरत न काज। मोसे दीन अनाथ रंकको, तुमतें वनत इलाज ।। म्हारी० ॥१॥निज पर नेकु दिखावत नाही, मिथ्या तिमिर समाज । चंदप्रभू परकाश करौ उर, पाऊं.धाम निजाज . ॥ म्हारी० ॥२॥ थकित भयौ हूं गति गति फिरतां, दर्शन पायौ आज । वारंवार वीनवै वुधजन, सरन गहेकी लाज ॥ म्हारी० ॥३॥.
राग-सोरठ। छिन न विसारां चितसौं, अजी हो प्रभुजी थान ॥ छिन० ॥ टेक ॥ वीतरागछवि निरखत नयना, हरष भयौ सो उर ही जानै ॥ छिन० ॥१॥ तुम मत खारक १ भोगोंका लोभी। , . ..

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