Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(३७).
राग-लोरठ। कर लै हो जीव, सुकृतका सौदा कर ले, परमारथः कारज कर लै हो । करि० ॥ टेक ॥ उत्तम कुलकों पायकैं, जिनमत रतन लहाय । भोग भोगवे कारनैं, क्यों शठ देत गमाय ॥ सौदा० ॥१॥ व्यापारी बनि आइयौ, नरभव हाट वजार । फल दायक व्यापार करि, नातर विपति तयार ॥ सौदा० ॥२॥ भव अनन्त धरतौ फियौ, चौरासी वनमाहिं । अव नरदेही पायकै, अघ खोवै क्यों नाहिं ।। सौदा०॥३॥ जिनमुनि आगम परखकै, पूजौ करि सरधान । कुगुरु कुदेवके मानतें, फिस्यौ चतुर्गति थान || सौदा० ॥४॥ मोह नींदमां सोवतां, हूवौ काल अटूट । बुधजन क्यों जागौ नहीं, कर्म करत है लूट । सौदा० ॥५॥
राग-सोरठ। वेगि सुधि लीज्यौ मारी, श्रीजिनराज ॥ बेगि० ॥ टेक ॥ डरपावत नित आयु रहत है, संग लग्या जमराज ॥ वेगि० ॥१॥ जाके सुरनर नारक तिरजग, सव भोजनके साज ऐसौकाल हस्खो तुम साहब, यातँ मेरी लाज।वेगि० ॥२॥ परघर डोलत उदर भरनकों, होत प्रात” सांज । झवत आश अथाह जलधिमैं, द्यो समभाव जिहाज ॥ ब्रेगि० ॥ ३ ॥ धना दिनाको दुखी दयानिधि, औसर पायौ आज । वुधजन सेवक ठाडो विनवै, कीज्यो मेरो काज । वेगि०॥४॥

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