Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(२५) रवि, केवलज्ञान निहारौ ॥ त्रिभुवन० ॥२॥ त्रिविधं शुद्ध भवि इनकी पूजौ, नाना भक्ति उचारौ। कर्म काटि बुधजन शिव लै हौ, तजि संसार दुखारौ ॥ त्रिभु० ॥३॥
राग-दीपचंदी। - मेरी अरज कहानी, सुनि केवलज्ञानी ॥मेरी०॥ टेक॥ चेतनके सँग जड़ पुद्गल मिलि, सारी बुधि वौरानी ॥ मेरी० ॥१॥भव वनमाहीं फेरत मोकौं, लख चौरासी थानी । कोलौं वरनों तुम सब जानो, जनम भरन दुखखानी ।। मेरी० ॥२॥ भाग भलेतें मिले वुधजनको, तुम जिनवर सुखदानी । मोह फांसिको काटि प्रभूजी, कीजे केवलज्ञानी ॥ मेरी० ॥३॥
तेरी बुद्धिकहानी, सुनि सूद अज्ञानी ।। तेरी०॥ टेक॥ . तनक विपय सुख लालच लाग्यौ, नंतकाल दुखखानी ।। तेरी० ॥१॥ जड़ चेतन मिलि बंध भये इक, ज्यौं पयमाही पानी । जुदा जुदा सरूप नहिं मान, मिथ्या एकता मानी ॥ तेरी० ॥२॥हूं तो वुधजन दृष्टा ज्ञाता, तन जड़ सरधा आनी । ते ही अविचल सुखी रहेंगे, होय मुक्तिवर पानी । तेरी०॥३॥
! राग-ईमन।
तू मेरा कह्या मान रे निपट अयाना ।। तू० ॥ टेक ॥ भव वन वाट मात सुत दारा, बंधु पथिकजन जान रे ।

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