Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 223
________________ ( २४ ) उपाई ॥ धनि० ॥ १ ॥ लौकान्तिक आये ततखिन ही, चढ़ि सिविका बनओर चलाई । भये नगन सब परिग्रह तजिकै, नग चम्पातर लौंच लगाई ॥ घनि० ॥२॥ महासेन धनि धनि लच्छमना, जिनकैं तुमसे सुत भये साईं । बुधजन वन्दत पाप निकन्दत, ऐसी सुबुधि करो मुझमाई ॥ धनि० ॥ ३ ॥ (५७) चुप रे मूढ अजान, हमसौं क्या वतलावै ॥ चुप० ॥ टेक ॥ ऐसा कारज कीया तैंनें, जासौं तेरी हान ॥ चु० ॥ १ ॥ राम विना हैं मानुष जेते, भ्रात तात सम मान । कर्कश वचन वकै मति भाई, फूटत मेरे कान ॥ चुपं० ॥ २ ॥ पूरब दुकृत किया था मैंने, उदय भया ते आन । नाथविछोहा हूवा यातें, पै मिलसी या थान ॥ चुप० ॥ ३ ॥ मेरे उरमैं धीरज ऐसा, पति आवै या ठान । तव ही निग्रह है है तेरा, होनहार उर मान ॥ चुप० ॥ ४ ॥ कहां अजोध्या कहँ या लंका, कहाँ सीता कहँ आन । वुधजन देखो विधिका कारज, आगममाहिं बखान ॥ चुप० ॥ ५ ॥ (५८) राग - कनड़ी एकतालो । त्रिभुवननाथ हमारौ, हो जी ये तो जगत उजियारौ ॥ त्रिभुवन० ॥ टेक ॥ परमौदारिक देहके माहीं, परमातम हितकारी ॥ त्रिभुवन० ॥ १ ॥ सहजैं ही जगमाहिं रह्यौ छै, , दुष्ट मिथ्यात अंधारौ । ताकौं हरन करन समकित .

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