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जैनपदसंग्रह। साता होत कछुक सुख मान, होत असाता रोवै । ये. दोनों हैं कर्म अवस्था, आप नहीं किन जोवै ॥ औरन सीख देत बहु नीकी, आप न आप सिखावै । सांचसाच कछु झूठ रंच नहि, याहीत. दुख पावै ॥ चेतन०. ॥६॥ पाप करत बहु कष्ट होत है, धरम करत मुख. भाई.! वाल गुपाल सबै इम भा, सो कहनावत. आई। दुहिमें जो तोकौं हित लागै, सो कर मनवचकाई। तुमको बहुत सीख क्या दीजे, तुम त्रिभुवनके राई ॥ चेतन० ॥७॥ त्रस पंचेन्द्रीसेती मानुप, औसर फिर नहिं पै है । तन धन आदि सकल सामग्री देखत देखत जै है ॥ समझ समझ अब ही तू प्राणी ! दुरगतिमें: पछतैहै । भज- अरहन्तचरण जुग द्यानत, वहुरि न जगमें ऐ है ॥ चेतन० ॥ ८॥ . . . . ३१७ । राग-सोरठ। ..
प्राणी! आतमरूप अनूप है, · परतें भिन्न त्रिकाल ॥ प्राणी ॥ टेक ॥ यह सब कर्म उपाधि है, राग दोप भ्रम जाल ॥ प्राणी० ॥१॥ कहा भयो काई लगी, आतम दरपनमाहिं ।: ऊपरली ऊपर रहै, अंतर पैठी नाहि ॥ प्राणी ॥२॥ भूलि जेवरी अहि मुन्यो, झूठ लख्यो नररूप । त्यों ही पर निज मानिया, वह जड़ तू चिद्रूप प्राणी ॥ ३. ॥ जीव-कनक तन-मैलके, भिन्न भिन्न परदेश । माह माह संध है, मिलें नहीं लव