Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 216
________________ पुर्न पापो रे ।। तू. २ ॥ जग स्वारथको कोई न तेरो, यह निहर्च उर थापो। बुधजन ममत मिटावौ मनतें, करि मुख श्रीजिनजापो रे ॥ तू० ॥३॥ राग-आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। थे ही मोन तारो जी, प्रभुजी कोई न हमारो ॥ थे ही० ॥ टेक ॥ई एकाकि अनादि कालते, दुख पावत हूं भारो जी॥थे ही०॥१॥ घिन मतलवके तुम ही स्वामी, मतलबको संसारो । जग जन मिलि मोहि जगमै राखें, तू ही कादनहारो॥थे ही० ॥ २ ॥ वुधजनके अपराध मिटायो, शरन गह्यो छ थारो । भवदधिमाहीं डूबत मोकी, कर गहि आप निकारो ॥थे ही० ॥३॥ राग-आसावरी मांझं, ताल धीमो एकतालो। प्रभूजीअरज ह्मारी उर धरोप्रभू जी० ॥टेका। प्रभू जी नरक निगोद्यांम रुल्यो, पायौ दुःख अपार॥ प्रभूजी०॥१॥ प्रभू जी, हूं पशुगतिमें ऊपज्यौ, पीठ सह्यौ अतिभार ॥ प्रभू जी० ॥२॥ प्रभू जी, विपय मगनमैं सुर भयो, जात न जान्या काल ॥ प्रभू जी० ॥ ३ ॥ प्रभू जी, नरभव कुल श्रावक लह्यो, आयो तुम दरवार ॥ प्रभू जी० ॥ ४ ॥ प्रभू जी, भव भरमन वुधजनतनों, भेटौ करि उपगार ॥ प्रभू जी० ॥ ५ ॥ १ पुण्य-शुभ कर्म ।

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