Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 218
________________ (११) आनकी प्रीति सयाने, भली वनी या जोरी ॥ चेतन ॥१॥ डगर डगर डोले है यों ही, आव आपनी पोरी' निज रस फगुवा क्यों नहिं वांटो, नातर ख्वारी तोरी ॥ चेतन० ॥ २ ॥ छोर कपाय त्यागि या गहि लै, समकित केसर घोरी । मिथ्या पाथर डारि धारि लै, निज गुलालकी झोरी ।। चेतन० ॥३॥ खोटे भेप धरै डोलत है, दुख पाचै वुधि भोरी । वुधजन अपना भेप सुधारो, ज्यौं विलसो शिवगोरी ॥ चेतन०॥४॥ (२४) राग-आसावरी जोगिया जल्द तेतालो। हे आतमा! देखी दुति तोरी रे॥ हे आतमा०॥टेक॥ निजको ज्ञात लोकको ज्ञाता, शक्ति नहीं थोरी रे ॥ हे आतमा० ॥१॥ जैसी जोति सिद्ध जिनवरमैं, तैसी ही मोरी रे॥ हे आतमा० ॥२॥ जड़ नहिं हुवो फिर जड़के वसि, के जड़की जोरी रे ॥ हे आतमा० ॥३॥ जगके काजि करन जग टहलै, वुधजन मति भोरी रे ॥ हे आतमा०॥४॥ वावा! मैं न काहू का, कोई नहीं मेरा रे॥वावा० ॥टेका। सुर नर नारक तिरयक गतिम, मोकौं करमन घेरा रे ॥ बावा० ॥१॥ मात पिता सुत तिय कुल परिजन, मोह गहल उरझेरा रे। तन धन वसन भवन जड़ न्यारे, हूं चि१ पार-घर । २ धूल ।

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