Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 217
________________ (१०) (२१) राग-आसावरी। जगतमैं होनहार सोहोवै,सुर तृप नाहिं मिटावै॥ जगत० ॥ टेक ॥ आदिनाथसेकौं भोजनमैं, अन्तराय उपजावै। पारसप्रभुकौं ध्यानलीन लखि, कमठ मेघ वरसावै॥जगत० ॥१॥ लखमणसे सँग भ्राता जाकै, सीता राम गमावै। प्रतिनारायण रावणसेकी, हनुमत लंक जरावै ॥ जगत० ॥२॥ जैसो कमावै तैसो ही पावै, यों वुधजन समझाव। आप आपकौं आप कमावौ, क्यों परद्रव्य कमावै ॥ जगत० ॥३॥ (२२) ___ राग-आसावरी जलदतेतालो। आU कहा करसी भैया, आजासी जब काल रे॥आगें० ॥ टेक ॥ ह्यां तौ तैनै पोल मचाई, व्हां तौ होय समाल रे ॥ आगैं० ॥१॥ झूठ कपट करि जीव सताये, हस्या पराया माल रे । सम्पतिसेती धाप्या नाही, तकी विरानीवाल रे ॥ आ-० ॥२॥ सदा भोगमैं मगन रह्या तू, लख्या नहीं निज हाल रे । सुमरन दान किया नहिं भाई, हो जासी पैमाल रे ॥ आगैं० ॥३॥ जोवनमैं जुवती सँग भूल्या, भूल्या जव था बाल रे । अव हू धारो वुधजन समता, सदा रहहु खुशहाल रे ॥ आगे०॥४॥ (२३) ताद . राग-आसावरी जोगिया जलद तेतालो। चेतन, खेल सुमतिसँग होरी । चेतन०॥ टेक ॥ तोरि • १ संतुष्ट नहीं हुआ। २ दूसरेकी । ३ स्त्री। ४ पायमाल-नष्ट ।

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