Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 214
________________ राग-बिलावल धीमो तेतालो। नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा काज न करना हो । नरभव०॥ टेक ॥ नाहक ममत ठानि पुद्गलसौं, करमजाल क्यों परना हो ॥ नरभव० ॥१॥ यह तो जड़ तू ज्ञान अरूपी, तिल तुप ज्यों गुरु वरना हो । राग दोप तजि भजि समताकों, कर्म साथके हरना हो । नरभव० ॥२॥ यो भव पाय विषय-सुख सेना, गज. चढ़ि ईंधन ढोना हो । बुधजन समुझि सेय जिनवर पद, ज्यौं भवसागर तरना हो । नरभव० ॥३॥ राग-बिलावल इकतालो। सारद ! तुम परसादतें, आनंद उर आया ॥ सारद० ॥ टेक ॥ ज्यों तिरसातुर जीवकों, अम्रतजल पाया ॥ सारद० ॥१॥ नय परमान निखेपते, तत्त्वार्थ बताया। भाजी भूलि मिथ्यातकी, निज निधि दरसाया ॥ ॥ सारद० ॥२॥ विधिना मोहि अनादितें, चहुँगति भरमाया । ता हरिवेकी विधि सबै, मुझमाहिं बताया ॥ सारद० ॥३॥ गुन अनन्त मति अलपत, मोपै जात न गाया । प्रचुर कृपा लखि रावरी, वुधजन हरपाया ॥ सारद०॥४॥ (१६) गुरु दयाल तेरा दुख लखिकै, सुन लै जो फुरमावै है ॥ गुरु० ॥ तोमै तेरा जतन वतावै, लोभ कछु नहिं

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