Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 210
________________ १५४ जैनपदसंग्रह। ३२२ । राग-सोरठमें ख्याल । . ___ भाई काया तेरी दुखकी ढेरी, विखरत सोच कहा है। तेरे पास सासतौ तेरो, ज्ञानशरीर महा है । भाई० ॥१॥ज्यों जल अति शीतल है काचौ, भाजन दाह दहा है (१) । यो ज्ञानी सुखशान्त कालका, दुख समभाव सहा है ॥ भाई० ॥२॥ वोदे उतरे नये पहिरतें, कौंने खेद गहा है । जप तप फल परलोक लहैं जे, मरकै वीर कहा है ॥ भाई० ॥३॥ द्यानत अन्तसमाधि चहैं मुनि, भागों दाव लहा है। वहु तज मरण जनम दुख पावक, सुमरन धार वहा है ।। भाई०॥४॥ ३२३ । मंगल आरती राग- भैरों। मंगल आरती कीजे भोर, विधनहरन सुखकरन किरोर ॥ मंगल ॥ टेक ॥ अरहत सिद्ध सूरि उवझाय, साधु नाम जपिये सुखदाय ॥ मंगल ॥१॥ नेमिनाथ स्वामी गिरनार, वासुपूज्य चम्पापुर धार । पावापुर महावीर मुनीश, गिरि कैलास नमो आदीश ॥ मंगल. ॥२॥ सिखर समेद जिनेश्वर वीस, वंदों सिद्धभमि निशिदीस । प्रतिमा खर्ग मत्यै पाताल, पूजों कृत्य अकृत्य त्रिकाल ॥ मंगल ॥३॥ पंच कल्याणक काल १ द्यानतजीकी दश आरती हमने अलग छपाई हैं, इसरि इस पदसंग्रहमें शामिल नहीं की हैं । प्रकाशक ।

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