Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 208
________________ जैनपदसंग्रह | १.१२. तो नीति विचार । आप सलाह किधौं पंचनिमें, दुई. चढ़िये ना हाकिम द्वार ॥ कीजे ० ॥ २ ॥ सोना रूपा बासन कपड़ा, घर हाटनकी कौन शुमार | भाई नाम वरन दो ऊपर, तन मन धन सब दीजे वार ॥ कीजे ० ॥ ३ ॥ भाई बड़ा पिता परमेश्वर, सेवा कीजे तजि हंकार | छोटा पुत्र ताहि सव दीजे, वंश वेल विरधै . अधिकार ॥ कीजे० ॥ ४ ॥ घर दुख बाहिरसों नहिं टूटै, बाहिर दुख घरसों निरवार । गोत घाव नहिं चक्र करत है, अरि सब जीतनको भयकार ॥ कीजे ० ॥ ५ ॥ कोई कहै नैं भाईको, राज काज नहिं दोप लगाऱ । यह कलिकाल नरकको मारग, तुरकनिमें हममें न निहार ॥ कीजे ० ॥ ६ ॥ होहि हिसावी तो गम खइये, नाहक झगड़े कौन गँवार । हाकिम लूटें पंच विगूचैं, मिलें नहीं वे आँखें चार ॥ कीजै० ॥ ७ ॥ पैसे कारन लड़ें निखट्टू, जानें नाहिं कमाई सार । उद्यममें लछमीका बासा, ज्यों पंखे में पवन चितार ॥ कीजे ० . ॥ ८ ॥ भला न भाई भाव न जामें, भला पड़ौसी जो हितकार । चतुर होय परन्याव चुकावै, शठ निजः न्याय पराये द्वारं ॥ कीजे० ॥ ९ ॥ जस जीवन अपजस मरना है, धन जोवन विजली उनहार । द्यानत .. १ तुकोंमें अर्थात् मुगलोंमें । राजके लिये वे भाईयों को मार डालते थे । • →

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