Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 202
________________ चतुर्थभाग। १४३ होत अहारी । कपड़े पहिरै नगन कहावै, नागा अंवरधारी ॥ सोई० ॥ ३ ॥ वस्तीको ऊजर कर देखै, ऊजर वस्ती सारी । धानत उलट चालम सुलटा, चेतनजोति निहारी ॥ सोई० ॥४॥ ३०७ आतम अनुभव कीजिये, यह संसार असार हो । आतम० ॥ टेक ॥ जैसो मोती ओसको, जात न लागै वार हो ॥ आतम० ॥१॥ जैसे सब पनिजीवि, पैसा उतपत सार हो। तसैं सब ग्रंथनिवि, अनुभव हित निरधार हो ॥ आतम० ॥२॥ पंच महाव्रत जे गर्दै, सह परीपह भार हो । आतमज्ञान लखें नहीं, वृहुँ कालीधार हो । आतम० ॥ ३ ॥ बहुत अंग पूरव पढ्यो, अभयसेन(?) गँवार हो । भेदविज्ञान भयो नहीं, रुल्यो सरख संसार हो ॥ आतम० ॥४॥ बहु जिनवानी नहिं पढ़यो, शिवभृती अनगार हो । घोप्यो तुप अरु मापको, पायो मुकतिदुवार हो ॥ आतम० ॥५॥ जे सीझे जे सीझ हैं, जे सी इहि वार हो। ते अनुभव परसादत, यों भाप्यो गनधार हो ॥ आतम० ॥ ॥६॥ पारस चिन्तामनि सर्वे, सुरतरुआदि अपार १ यत्रधारी। २ व्यापारोंमें । ३ उत्पत्ति, प्राप्ति । ४ मुनि । ५ उड़द की दालसे जैसे उसका छिलका भिन्न है, इसी तरह आत्माले शरीर भिन्न है, ऐसा कहते २ ।

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