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जैनपदसंग्रह। खय भयो, अव्रत विषय दुखकार हो । द्यानत कव यह थिति पूरी है, लहों मुकतपद सार हो ॥ कौन० ॥२॥
२०२। रे! मन गाय लै, मन गाय लै, श्रीजिनराय ॥रे मन० ॥ टेक ॥ भवदुख चूरै आनंद पूरै, मंगलके समुदाय ॥ रे मन० ॥ १ ॥ सवके स्वामी अन्तरजामी, सेवत सुरपति पाय । कर ले पूजा और न दूजा, धानत मन-वच-काय ॥ रे मन० ॥२॥
२०३। राग-प्रभाती। देखे जिनराज आज, राजऋद्धि पाई ॥ देखे० ॥ टेक ॥ पहुपवृष्टि महा इष्ट, देवदुंदुभी सुमिष्ट, शोक करै भृष्ट सो, अशोकतरु वड़ाई ॥ देखे० ॥१॥ सिंहासन झलमलात, तीन छत्र चित सुहात, चमर फरहरात मनो, भगति अति बढ़ाई ॥ देखे० ॥२॥ द्यानत भामण्डलमें, दीसैं परजाय सात, बानी तिहुँकाल झरै,. सुरशिवसुखदाई ॥ देखे ॥३॥ .
२०४।। साधजीने वानी तनिक सुनाई ॥साधजी०॥ टेक॥ गौतम आदि महा मिथ्याती, सरधा निहचै आई॥ साधजी० ॥१॥ नृप विभूति छयवान विचारी, वारह भावन भाई ॥ साधजी० ॥२॥ द्यानत हीन शकति हू देखौ, श्रावक पदवी.पाई॥ साधजी०॥३॥