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________________ चतुर्थभाग। १०७ पुद्गल तुमतें आन हो । चेतन पावन अखय अरूपी, आतमको पहिचान हो॥प्राणी०॥१॥ नाव धरेकी लाज निवाहो, इतनी विनतीमान हो। भव भव दुखको जल दे धानंत, मित्र! लहो शिवथान हो ॥ प्राणी० ॥२॥ १९९। आपमें आप लगाजी सु हाँ तो ॥ आप०॥ टेक ॥ सुपनेका सुख दुख किसके, सुख दुख किसके, मैं तो अनुभवमाहि जगा जी-सु हौं तो ॥ आप० ॥ १ ॥ पुदगल तो ममरूप नहीं, ममरूप नहीं, जैसेका तैसा सगा जी-सु हाँ तो ॥ आप० ॥२॥ द्यानत मैं चेतन वे जड़, वे जड़ हैं, जड़सेती पगा जी, सु हौं तो ॥ आप० ॥३॥ २००। वीतत ये दिन नीके, हमको ॥ वीततः ॥ टेक ॥ भिन्न दरव तत्वनितें धारे, चेतन गुण हैं जीके ॥ वीतत० ॥ १ ॥ आप सुभाव आपमें जान्यो, सोइ धर्म है ठीके | वीतत० ॥२॥ द्यानत निज अनुभव रस चाख्यो, पररस लागत फीके ॥ वीतत० ॥३॥ २०१। कौन काम अव मैंने कीनों, लीनों सुर अवतार हो.॥ कौन०॥टेक॥ गृह तजि गहे महाव्रत शिवहित, विफल फल्यो आचार हो। कौन ॥१॥ संयम शील ध्यान तप
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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