________________
७८
जैनपदसंग्रह। न आवै गोधन धाम ॥ अव० ॥१॥ जिहँ जान्या विन दुख बहु सह्यो, सो गुरुसंगति सहजै लह्यो। अव० ॥२॥ किये अज्ञानमाहि जे कर्म, सब नाशे प्रगट्यो निज धर्म ॥ अव०॥३॥ जास न रूप गंध रस फास, देख्यो करि अनुभौ अभ्यास ॥ अब० ॥ ४ ॥ जो परमातम सो ममरूप, जो मम सो परमातम भूप ॥ अव० ॥५॥ सर्व जीव हैं मोहि समानं, मेरे वैर नहीं तिन-मान ॥ अव० ॥ ६ ॥ जाको ढूंढ़े तीनौं लोक, सो मम घटमें है गुण थोक ॥ अव०॥७॥ जो करना था सो कर लिया, धानत निज गह पर तज दिया ॥ अव०॥८॥
१५२ । राग-धमाल। चेतन प्राणी चेतिये हो. अहो भनि प्रानी चेनिये हो, छिन छिन छीजत आव ॥ टेक ॥ घड़ी घड़ी घड़ियाल रटत है, कर निज हित अब दाव ॥ चेतन०॥ टेक ॥ १॥ जो छिन विषय भोगमें खोवत, सो छिन भजि जिन नाम । वाते नरकादिक दुख पैहै, यातें सुख अभिराम ॥ चेतन० ॥२॥ विषय भुजंगमके डसे हो, रुले बहुत संसार । जिन्हें विषय व्यापै नहीं हो, तिनको जीवन सार ॥ चेतन० ॥३॥ चार गतिनिमें दुर्लभ नर भव, नर विन मुकति न होय । सो ते पायो भाग उदय हो, विषयनि-सँग मति. खोय ॥ चेतन