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जैनपदसंग्रह.
तेरा ॥टेक॥ अपना सुखदुख आप हि भुगते, होत कुटुंब न भेला ।.स्वार्थ भय सव विछुरि जात है, विघट जात ज्यों मेला ॥१॥ रक्षक कोइ न पूरन व्है जब, आयु अंतकी वेला । फूटत पारि बधत नहिं जैसे, दुद्धर जलको ठेला । ॥ २॥ तन धन जोवन बिनशि जात ज्यो, इन्द्रजालका खेला । भागचन्द इमि लख करि भाई, हो सतगुरुका घेला ॥ जीव तू भ्रमत० ॥३॥
आकुलरहित होय इमि निशदिन, कीजे तत्वविचारा हो । को मैं कहा रूप है मेरा, पर है कौन प्रकारा हो ॥ टेक ॥१॥ को भव-कारण वंध कहा को, आस्रवरोकनहारा हो । खिपत कर्मबंधन काहेसों, थानक कौन हमारा हो ॥ २ ॥ इमि अभ्यास किये पावत है, परमानंद अपारा हो। भागचंद यह सार जान करि, कीजे वारंपारा हो ॥ आकुलरहित होय० ॥३॥
राग भैरव। सुन्दर दशलच्छन वृष, सेय सदा भाई। जासते ततच्छन जन, होय विश्वराई ॥ टेक ।। क्रोधको निरोध शांत, सुधाको नितांत शोध, मानको तजौ भजौ स्वभाव कोमलाई ॥१॥ छल बल तजि सदा विमलभाव संरलताई भजि, सर्व जीव चैन दैन, वैन कह सुहाई ॥२॥