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चतुर्थभाग। सिख सुन ले तू कान दे, हो धरमके धोरी । कहै द्यानत यह सार है, सव बातें कोरी ॥ चेत०॥४॥
१३० । राग-गौरी। रे भाई ! संभाल जगजालमें काल दरहाल रे॥रे भाई० ॥ टेक ॥ कोड़ जोधाको जीतै छिनमें, एकलो एक हि मूर। कोड़ सूर अस धूर कर डारे, जमकी भौंह कसर ॥ रे भाई० ॥१॥ लोहमें कोट सौ कोट वनाओ, सिंह रखो चहुँओर । इंद फनिंद नरिंद चौकि दें, नहिं छोड़ें मृतु जोर ॥ रे भाई० ॥२॥ शैल जलै जस आग बलै सो, क्यों छोड़े तिन सोय॥ देव सवै इक काल भखै है, नरमें क्या चल होय ॥रे भाई ॥३॥ देहधारी भये भूपर जे जे, ते खाये सब मौत । चानत धर्मको धार चलो शिव, मौतको करके फौत ॥ रे भाई ॥४॥
१३१। पायो जी सुख आतम लखके। पायो० ॥ टेक॥ ब्रह्मा विष्णु महेश्वरको प्रभु, सो हम देख्यो आप हरखकै ॥ पायो० ॥१॥ देखनि जाननि समझनिवाला, जान्यो आपमें आप परखकै॥पायो॥२॥धानत सवरस विरस लग है, अनुभौ ज्ञानसुधारस चखकै ॥ पायो॥३॥
१३२ । राग-गौरी। सरसों छिमा छिमा कर जीव ! ॥ टेक ॥ मन वच तनसां वैर भाव तज, भज समता जु सदीय ॥ सवसों०