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जैनपदसंग्रह.
जी० ॥ १ ॥ जन्म प्रभु तुमने जब लीना, न्हवन मंदिरपे हरि कीना । भक्ति करि सची सहित भीना, बोला जयजयकार | स्वामीजी० ॥ २ ॥ जगत छनभंगुर जव जाना, भये तव नगनवृत्ती वाना । स्तवन लौकांतिकसुर ठाना, त्याग - राजको भार | स्वामीजी० ॥ ३ ॥ घातिया प्रकृति जबै नासी, चराचर वस्तु सबै भासी । धर्मकी वृष्टि करी खासी, केवलज्ञान भँडार ॥ स्वामीजी० ॥ ४ ॥ अघाती प्रकृति सुविघटाई, मुक्तिकान्ता तब ही पाई । निराकुल आनँद असहाई, तीन लोकसरदार | स्वामीजी० ॥ ५ ॥ पार गनधर हू नहिं पावै, कहां लगि भागचन्द गावै । तुम्हारे चरनांवुज ध्यावै, भवसागरसों तार ॥ स्वामीजी० ॥ ६ ॥ ३९.
राग मल्हार ।
मान न कीजिये हो परवीन ॥ टेक ॥ जाय पलाय चंचला कमला, तिट्टै दो दिन तीन । धनजोवन छनभंगुर सब ही, होत सुछिन छिन छीन ॥ मान न० ॥ १॥ भरत नरेन्द्र खंड-खट-नायक, तेहु भये मदहीन । तेरी बात कहा भाई, तू तो सहज हि दीन ॥ मान न० ॥ २ ॥ भागचन्द मार्दव - रससागर, माहिं होहु लवलीन | तातैं जगतजाल में फिर कहुं, जनम न होय नवीन ॥ मान न० ॥ ३ ॥
४०.
राग मल्हार ।
अरे हो. अज्ञानी, तूने कठिन मनुपभव पायो ॥ टेक ॥