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जैनपदसंग्रह |
८३.
राचि रह्यो परमाहिं तू अपनो रूप न जाने रे । राचि रह्यो० टेक || अविचल चिनमूरत विनमूरत, सुखी होत तस ठाने रे । राचि रह्यो० ॥ १ ॥ तन धन भ्रात तात सुत जननी, तू इनको निज जाने रे । ये पर इनहिं वियोगयोगमें, यों ही सुख दुख मानै रे || राचि ० ॥ २ ॥ चाह न पाये पाये तृष्णा, सेवत ज्ञान जघानै रे ॥ विपतिखेत विधिबंधहेत पैं, जान विषय रस खानै रे || राचि ० || ३ || नरभव जिनश्रुतश्रवण पाय अब कर निज सुहित सयानै रे । दौलत आतम-ज्ञान-सुधारस, पीवो सुगुरु बखानै रे || राचि रह्यो० ॥ ४ ॥
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८४.
तू काहेको करत रति तनमें, यह अहितमूल जिम कांरासदन । तू काहेको ० ॥ टेक ॥ चरमपिहित पैल- रुधिर-लिप्त मल, -द्वारखवै छिन -
१ कारागार जहलखाना । २ चमड़े से ढकी हुई । ३ मांस ।
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