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जैन युग-निर्माता |
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प्रभातका समय, सम्राट् भग्त अनेक नरशोंसे शोभित सिंहामन पर बैठे थे । सामंतगण शस्त्रोंसे विभूषित नियमित रूप से खड़े थे | भरतकी वह सभा इन्द्र समाके सौन्दर्यको पराजित कर रही थी। इसी समय प्रधान सेनापतिने राज्य सभा में प्रवेश किया । उसका हृदय हर्षसे भर रहा था। अपने मस्तकको झुकाकर वह बड़ी नम्रता से बोला- अपने भुजबल से नरेशका मानमर्दन करनेवाले सम्राट् ! आज आप पर देवताओंने कृपा की है, सौभाग्य आपके चरणोंपर लोटनेको आया है । आज आपकी आयुवशाला प्रकाशसे जगमगा रही है, जिसके तेजके आगे शुवीरोंके नेत्र झक जाते हैं, सूर्यका प्रकाश भी मंदसा पड़ जाता है और कायरों के हृदय भयसे कातर होजाते हैं । वही अदभुत चक्ररत्न आपकी आयुधशालाको सुशोभित कर रहा है आप चलकर उसे ग्रहण कीजिए ।
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भरत नरेशने हर्ष से यह समाचार सुना वे आयुघशाला जाने लिए तैयार होरहे थे इसी समय एक ओरसे मंगलगान करती हुई महलकी परिचारिकाओंने प्रवेश किया, वे स्म्राट्का सुयश गान करती हुई बोली- राजराज्येश्वर ! आज हम बड़ी प्रसन्नता से आपको यह संदेश सुना रही है, आज हमारा हृदय हर्षसे परिपूर्ण होरहा है, सुनिए जो प्रबल पुण्यका प्रतिफल है जिसे देखकर हर्षका समुद्र उमड़ने लगता है और जो कुलकी शोभा है ऐसे मानन्द बढ़ानेवाले युवराजने आपके राज्यमहरूको प्रकाशित किया है भाप चढकर उसे देखिए अपने नेत्रोंको तृप्त कीजिए और हमारी बधाई स्वीकार कीजिए ।
समयकी गति विचित्र है। जब किसी का सौभाग्य उदित होता