Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 140
________________ २९२ ] जैन युग-निर्माता | प्रसंग यह था - राजगृहमें बौद्ध भिक्षुकका एक विशाल संघ माया या । संघ आगमनका समाचार चिंवसारने सुना । वे अत्यंत प्रस्न होकर गनी चेनासे बौद्ध भिक्षुकों की प्रशंसा करने लगे । वे बोले" प्रिये ! तू नहीं जानती कि बौद्ध भिक्षु ज्ञानकी किस उत्कृष्टताको प्राप्त कर लेते हैं । संसारका प्रत्येक पदार्थ उनके ज्ञानमें झलकता है । के 1 1 परम पवित्र हैं। वे ध्यान में इतने निम्न रहते हैं कि यदि उनसे कोई कुछ प्रश्न करना चाहता है तो उसका उत्तर भी उसे बड़ी कठिनता से मिलता है। ध्यान से वे अपनी आत्माको साक्षात् मोक्षमें लेज ते हैं । वे वास्तविक तत्वों के उपदेशक होते हैं । चेलनाने बौद्ध भिक्षुकोंकी यह प्रशंसा सुनी। उन्होंने नम्रता से उत्तर दिया- "मार्य ! अदि आपके गुरु इस तरह पवित्र और ध्यानी हैं उन उनका दर्शन मुझे अवश्य कराइए। ऐसे पवित्र महात्माओं का दर्शन करके मैं अपनेको कृतार्थ झूवी | इतना ही नहीं, यदि मेरे परीक्षणकी कसौटी पर न च ज्ञान और चारित्र | निकला तो मैं आपसे कहती हूं, मैं भी उनकी उपासिका बन जाऊंगी | मैं पवित्रताकी उपासिका हूं, मुझे वह कहीं भी मिले। यह हठ मुझे नहीं है कि वह जैन साधु ही हो, सत्य और पवित्र आत्मा के दर्शन जहाँ भी मिलें वहां मैं अपना मस्तक झुकाने को तैयार हूं. लेकिन बिना परीक्षण के यह कुछ ही होसकेगा । मैं आशा करती हूं कि आप मुझे परीक्षणका अवसर अवश्य देंगे " 1 शनीके सरल हृदय से निकली वार्ताका राजा बिवसारके हृदयपर गहरा प्रभाव पड़ा । उन्होंने बौद्ध साधुओंके ध्यानके लिए एक विशाल

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