Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 142
________________ २९४ ] जैन युग-निर्माता । उसी समय बुलाया | कांपते हुए हृदयसे वे बोले-“रानी ! तुम्हारा यह कृत्य सहन कानेयोग्य नहीं, मैं नहीं समझता था कि मतद्वेष में तुम इतनी अभी हो जाओगी। यदि तुम्हें बौद्ध भिक्षुकों पर श्रद्धा नहीं थी तो तुम उनकी भक्ति भले ही न करतीं, लेकिन उनके ऊपर ऐसा प्राणान्तक उपसर्ग तो तुम्हें नहीं करना चाहिए था। क्या तेरा जैन धर्म इसी तरह भिक्षुओंके निर्देयता से प्राण घातकी शिक्षा देता है ? तेरे बरं क्षणकी अंतिम कसौटी क्या बेकसूर प्राणियों का प्राणघात ही है ? कुपित नरेशको शांत करती हुई चेलना बोली- "नरेश्वर ! मेरा लक्ष्य उन्हें जगमी तकलीफ देनेका नहीं था और न मेरे द्वारा उन बौद्ध मिक्षुकोंको थोड़ा सा भी कष्ट पहुंचा है। मैं तो ब्रह्मचारी के उत्तासे ही यह सम्झ चुकी थी कि ये बौद्ध भिक्षुक निरे दमी हैं, ये अमिकी ज्वालाको सह नहीं सकेंगे और भाग खड़े होंगे। में तो आपको इनके मौन नाटकका एक दृश्य ही दिखलाना चाहती थी, इसे आप स्वयं देख लीजिए । " वे साधु समाधिस्थ नहीं थे, यदि उनकी आत्मा समाधिस्थ होती तो वे शरीरको जल जाने देते। शरीर के जलने से उनकी सिद्धालय में विराजमान आत्माको कुछ भी कष्ट नहीं होना चाहिए था । वह समावि ही कैसी जिसमें शरीर के नष्ट होनेका भय रहे, समाधिस्थ तो अपने शरीर के मोहको पहले ही जळा बैठता है, फिर उसके जलने और मरने से उसे क्या भय हो सकता है ? महाराज ! वास्तव में आपके वे भिक्षु समाधिस्थ नहीं थे । उन्होंने मेरे का उत्तर न दे सकने के कारण मौनका दंभ रचा था,

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