Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 170
________________ ३५० ] जैन युग निर्माता | गौतमका विवेचन वास्तवमे विद्वत्त पूर्ण था । बड़े झरने के फलकलनादकी तरह धारावाहिक रूपसे बोल रहे थे । गंभीर तर्क और युक्तियों ने अपने सिद्धान्तकी पुष्टि करते जाते थे । शिष्यमंडली मंत्रमुक्की तरह उनका व्याख्यान सुन रही थी । ओजस्विनी भाषा में विवेचन करते हुए विद्वान गौतम सचमुच डी सरस्वती के पुत्रकी तर लुम पड़हे थे। उनकी उत्तिएं उनकी गवेषणाएं और उनकी वक्तृताका ढंग चमत्कारिक था : विद्वानोंकी दृष्टिमें आजका व्याख्यान उनका अत्यंत महत्वपूर्ण था, व्याख्यान समाप्त हुआ : धन्य धन्यकी उच्च ध्वनि समाम्थान गूंज उठा । सम्पूर्ण शिष्यमंडलीने एक स्वर से इम अभूतपूर्व व्याख्यानका अनुमोदन किया । शिष्य समूह में बैठा हुआ एक वृद्ध पुरुष ही ऐसा थ जिसके मुंहसे न तो कोई प्रशंसात्मक शब्द ही निकला और न उपने इस व्याख्यानका कुछ भी समर्थन ही किया। वह केवल निश्चल दृष्टिसे उनके मुंडकी ओर ही देखता रहा । विद्वान् गौतम उसके इस मौको सहन नहीं कर रूके वे कुछ क्षणको सोचने लगे। मेरे जिस भाषणको सुन कर कोई भी विद्वन प्रशंसा किए बिना नहीं रह सक्त उसके प्रति हम ब्राह्मणकी इतनी उपेक्षा क्यों है ? इमने अरना कुछ भी महत्त्व प्रदर्शित नहीं किया। तब क्या इसे मेरा भाषण रुचा नहीं ! अच्छा तब इसे अपने भाषणका और भी चमत्कार दिखलाना चाहिए। देखूं इसका मन कैसे मुग्ध नहीं होता है। मैं देखता हूं यह ब्रझण अब मेरी प्रशंसा किए बिना कैसे रह सकता है ? वे अपने प्रखर पत्की घारा बहाते हुए अपने विशाल ज्ञानका परिचय देने बये ।

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