Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ गणराज गौतम। [३४९ उनकी दिव्यध्वनि प्रष्ट नहीं हुई। इन्द्र ने इसका कारण जानना चाहा, वे कारण ममझ गए। मरण यह था कि उनकी दिव्य ध्वनिसे प्रकट होनेवाले उपदेशोंकी व्याख्या काला कोई विद्वान उप समय वहां उपस्थित नहीं था। इन्द्र की इस मार को इल करना चाहते थे । मानवों के चंबल चित्तको वे जानते थे उपस्थित जनता महावीरकी वाणी सुनने को कितनी उत्सुक है उन्होंने हम समस्याके सुरझाने का पयत्न किया और वे उसमें सफल भी हुए । समस्याका एक ही हल था-गोतम ब्रह्मणको लाना । पन्तु उसका लाना भी तो क'ठन था लेकिन उसे कौन लाए ! अंतमें इन्द्र ने स्वयं इस कायको अपने हाथमें लिया । होने जनताको संबोधित करते हुए कुछ समयको धैर्य रखने का आदेश दिया और फिर वे ब्राहाका वेष घाण कर विद्वान् गौतमको लगके लिए चले दि० । गौतम शिष्य मंडली के समृमें बैठे हुए अपनी प्रतिम के प्रबल तेजको प्रकाशित कर रहे थे । वे दीर्घ शिखाधारी भने पांडिन्या । अनुचित अहंकार रखनेवाले वेद विषय ११ गंभीर ६. ख्यान दे रहे थे उनका हृदय अत्यंत प्रसन्न और सुख मम था। विवेचना करते हुए उन्होंने एक बार अपनी शिष्र मंडलीकी ओर गंभीर दृष्टि मे देवा । शिप्यमण सरल और मौन रूपसे गुरुदेवके मुस्वसे निकले गंभीर विवेचा को स्मुक्ताके साथ सुन रहे थे। इसी समय शिवा मृत्रसे येष्टित एक शरीरधारी ब्रह्मगने य रूपान सभामें प्रवेश किया ब्रह्मण अत्यंत वृद्ध था उसके चेहरे से विद्वत्ता स्पष्ट रूपसं झलक रही थी व्यास न सुनने की इच्छासे व से पीछे एक स्थान ।। बैठ गया ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180