Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 179
________________ स्वामी ममन्त भद्र। हो सकता था किन्तु इस 41 क्रियाओं को वे मुनि वेषको कलंकित काना समझते थे, और नियाविरुद्ध जीवन विताना भी ये उचित नहीं समझते थे। उस समयको परिस्थिति उनके सामने महा भयंकर थी । उनै जीवनसे म ह नहीं था शरीरको तो वह इस मात्मासे करमे भिम मान चुके थे । शरीर में उन्हें कोई खेद नहीं था, में यदि ग्वेद था, तो यही ' लोककल्याणकी भावनाएं ममी पूण नहीं हो की थी शगर द्व र म मा और अन्य पाणियों की उन्नतिकी ललपा सभी ना तृप्त नहीं हो पई थी. किन्तु इस महा भयंकर व्याधिके माम्न का कुर यश नहीं था । अन्ततः उन्होंन मन्याम द्वारा नश्वर शगम अपना सम्म त्याग देनेका निश्चय किय । मौभाग्यसे उन्हें लोक पाणारी मनु.वी गुमका संपर्ग प्रप्त हुआ था, उनमें समयोचित विमा का विमान था उन्हें अपने प्रिय शिष्पकी भावना ज्ञात हुई न्या शास्त्र की मंशाम दुन्दुभि पजाने वाले अपने प्रतिभाश ली शिष्या श्रममयमें वियंग होजाना है इच्छिन नी था। वह ममझा थे मो ममतमदमे लोक का भवि. ध्यमें अधिक पाण होगा इक द्वारा मंगाको न्यायके रूमें जैन दशन पता कर उनके जीव को श्रमाय नष्ट हा नहीं देखना चहने थे किन्तु ऐमा अनाथामें वह मुनिवेष धारण कर, रह भी नहीं सन थे तु पवार नन्होंने दामाजीको समीप बुलाकर कहा: न' तुम जि 41 होषक व्याधिसे निर्मुक्त होनेका उद्योग करो आ• के लिए चाहे जहां जिस वेपमें विचरण करो। स्वस्थ

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