Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 180
________________ 370] जैन युग-निर्माता। हो नानेपर तुम फि' मुनि दीक्षा धारण कर सकते हो / यदि शरीर स्थिर रहता है तर धर्म और लोकका कल्याण कर सकते हो, लौकिक और भात्मिक कल्याणके लिए शरीर एक अत्यंत आवश्यक साधन है, इस साधनको पाकर इसके द्वारा संपारकी जितनी अधिक सेवा की जा सके कर लेना चाहिए, किन्तु वह सेवा स्वस्थ शरीर द्वारा ही की जा सकती है। भातु, तुम कुछ समयके लिए संघसे स्वतंत्र रहकर अपने शरीरको स्वस्थ बनाओ। व मीजी ने अपने गुरु महाराज की समयोचित माज्ञा स्वीकार की, इस वेप द्वारा भात्माल्याणकी गतिको उन्होंने रुकते हुए देखा मस्तु, उन्होंने इस वेषका त्याग करना उचित समझा और दिगंबर मुद्राका त्याग कर दिया। भब वे अपने स्वास्थ्य सुधारके लिए स्वतंत्र थे / मुनिवेषकी बाधा उन्होंन अपने ऊस टा दी थी, और यह कार्य उनका उचित ही था / पदके आदर्श अनु पार कार्य न कर सकने पर यही कही अत्यंत उचित है कि इनसे नीचे पदको ग्रहण कर लिया जाय किन्तु भादर्शमें दोष लगाना यह अत्यन्त घृणित और हानिपद है। किन्तु इसके प्रथम तो वह दिगम्बर थे, उनके पास कोई दस्वादि था ही नहीं, और इस दिंगबर वेष द्वारा किसी प्रकारके वस्त्रादिकी याचना नहीं कर सकते थे, अस्तु / उन्होंने भस्मसे अपने सारे शरीरको मलंकृत कर लिया और इसपकार जीवनके अत्यन्त प्रिय वेषका उन्होंने परित्याग कर दिया इस वेषका परित्याग करते समय उनका हृदय किसना रोया था, मानसिक वेदनासे वह कितने संतापित हो उठे

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