Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 171
________________ ANNA गणराज गौतम । ... [३५१ इस अतिम व्याख्यानमें उन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिमाके चमत्कारको प्रदर्शित कर दिया था। उनकी शिष्य मरली ने भी उनका इस तरह धारावाहिक और तक तथा गवेषणा पूर्ण भाषण भी नहीं सुना था, यह चित्र लिस्ति थे। द्विगुणित नयध्वनिसे एक बार सभा मंडप फिर गूज उठ'. हा रस्यान सम हुआ, विद्वान गौतमका साग शरीर पसीने से तर हो । था। अन्य दिन की अपेक्षा माज अपने भाषणमें उन्हें अधिक :: क हा था मान देखा वृद्ध ब्राह्मण म भी मौन । के हो ५१ म । [षण का कुछ भी प्रभाव पहा नहीं दिस्वता था। गौ14 अपने अ श्चर्यको ही रोक सके. दृद्ध ब ह्मणकी ओर एक तीव्र इष्टि डालने हए वे बोले । विपन ! तुमने मेर म पांडित्य भरे हुए चमत्कारिक भाप का कुछ भी अनुमोदन नहीं किया । क्या तुम्हें मेरा यह ६८ च्यान नहीं रुचा ? तब क्या में भक्षण सो नष्ट नहीं था! क्या में समान कोई महा विद्व न इस पृथ्व'- मंडलपर तुमने देखा है ? मुझम + ष्ट हो तुमने मेरे इस भाषण की प्रशसा क्यों नहीं की ? वृद्ध ब्रह्मणने कहा-विद्वान गौतम ! आको अपनी विद्वताका इतना अभिमान नहीं होना चाहिए, मापसे सहस्रगुणी अधिक प्रतिभा रखनेवाले विद्वान् इम थ्वी मंडलपर हैं __ आश्चर्यसे अपना मम्तक हिलाते हुए सम्पूर्ण शिप्पमंडली ने एक स्वासे कहा-कदापि नहीं, गुरूराजके समान प्रतिभा संन्न पुरुष इस पृथ्वी मंडकपर दूसरा कोई हो ही नहीं सकता। उनका स्वर कोषपूर्ण था।

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