Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 174
________________ ३५८) जैन युग-निर्माता . न करूं नहीं तो इस विवाद में मुझे मिवाय हास्य और अपमान के कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। मे। जो कुछ गौरव आज है वह भी नष्ट हो जायगा । इसके अतिरिक्त में इनके उम ब्राह्मण शिप्यके प्रश्न उत्तर देने में भी असमर्थ रहा, इसलिए मुझे अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार इनका शिष्यत्व ग्रहण करना चाहिए, ऐसे सर्व पूज्य महात्मा शिप्य बनना भी मेरे लिए एक महान गौत्वकी बात होगी। इस तरह विचार करते हुए महामना गोतमने अपने संपूर्ण शरीरको पृथ्वी तक झुका का भगवान महावीका साग प्रणाम किया । मोड कर्मका परदा भंग इ। नानेसे उनका हृदय सम्2 ग श्रद्धा और ज्ञानसं भर गया था, उन्होंने भक्तिके आवेशमें जाकर भगवान महावी सुन्दर इ.ब्दों में स्तुति की, फिर उनका शिष्य बन कर पूर्ण ज्ञान प्रत कामे की प्रार्थना की। भगनान महावीग्ने अपनी करण की महान घा। बहाने हुए उसे अपनी शरण में लिया और उसे जश्वी दशा प्रदान की। गौतमके साथ उसके दोनों बंधओं में सनी रिप्याने मी जैश्वरी दीक्षा ग्रहण की ! 'जैन धमकी जय' से मारा भासमान गंज उठा। सभा स्थित सभी व्यक्तियोंन गौतमके इस समयोगी सुकृत्यकी सराहना की । मभिमानके शिखर पर बढ़ा हुभा वित्रादी गैतम एक समय में ही भाव न महावीरका प्रधान शिप्य धेन गया। साधुओंक गणने भी हैं अपना प्रधान स्वीकार किया, और उन्हें मणाकी उपाधि प्रदान की। यह सब कार्य पलक मारत हुआ. माना किसी जादूगरने जादू कर दिया हो, ऐया यह सब कार्य होगया । भगवान महावीरके यह अद्भुत मार्षणका प्रभाव था जो अहिंसा और सत्यके

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