Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 167
________________ wwevneurwwwwwwantarvacation ३३८.] जैन युग-निर्माता। समझ कर भी पुत्र प्रेमसे मा+र्षिहाका मुझे उचित दंह नहीं देते तो यह अवश्य ही आपका भाव होता । ___ जो गजः मनुष्य प्र। अथवा व्यवहारिक सबन्ध पड़कर न्यायका उल्लघन करते हैं वह न्यायकी हत्या करनेवाले अवश्य ही अपराधी हैं। मैं जानता हूं मैं अघी नहीं था, लेकिन आपके न्यायने तो मुझे माधी ही पाया था, फिर आप मुझें दंड न देते तो बाकी जनता इसे क्या समझो क्या वई यही नहीं समझती कि मापने पुत्र-ममें I न्यायकी अज्ञ' की है, ऐसी दशामें आप क्या उस लोकापवादको महन करते हुए न्यायकी रक्षा कर सकते ? कभी नहीं ! आपने मुझे दंड दका न्याय त की रक्षा करते हुए प्रजावत्सलताका पूर्ण परिचय दिया है, म पकी हम न्यायगयणतासे आपका सुयश संपारमें विस्तृत रूपमे प्रख्यात हो।।। मुझे आपके न्यायका गौरव है. मे। हृदय उस समय जितना प्रमन्न था उतना ही अब भी प्रमन्न होरहा है। यह तो मेर पूर्व जन्मक कृतमोका संबंध था जिसके कारण मुझे अपराधों की श्रेणी में माना । । कर्मफल प्रत्येक व्यक्ति के लिए मोगना अनिवार्य है इ के लिए किसी व्यक्तिको दोष देना मूर्खता है। धर्मभक्त पुरुषों के साहस, दृढ़ना और धार्मिक्ताका परीक्षण तो उपसर्ग और भापनिये ही हैं। यदि मेरे ऊपर यह उपसर्ग न माया होता, इस तरह मेरा तिरस्कार न हमा होता तो मेरे सद्भाचरण और मात्म दृढ़ता का प्रभाव मानवों पर कैसे पडता ? चंदन नितना घिसा जाता है पुष्प यंत्रमें जितने पेले जाते हैं उनसे उतना ही अधिक सौम्म विकसित होता है। स्वर्ण जितनी तेम आंच पाता है, उतनी ही अधिक चमक बह पाता है। इस तरह धार्मिक और कर्तव्य नित

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